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२२ / जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
एक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है, जिससे स्वलक्षण का ग्रहण होता है, वह प्रत्यक्ष, सामान्य अर्थात आकार-शून्य स्वलक्षण का ग्रहण करता है । अतः वह निर्विकल्पक होता है, अर्थात वह अतीन्द्रिय है। स्वलक्षण के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को ही ग्रहण करते हैं। परन्तु उस निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के होते ही हमारा ज्ञान उसके साथ सामान्य या आकार को जोड़ देता है, इस प्रकार सामान्य लक्षण तत्त्व का जो हमें ज्ञान होता है, वह सविकल्पक अथवा अध्यवसाय कहा जाता है। वह सविकल्पक है, क्योंकि उसमें, सामान्य की मानस कल्पना विद्यमान है । स्मरणात्मक ज्ञान भी सामान्य लक्षण को ही विषय करता है। यह ज्ञान भी अर्थक्रियाक्षम नहीं है, अर्थात् स्मरणात्मक अग्नि जला नहीं सकती। पीछे कहा गया है, कि ज्ञान दो प्रकार का है-एक ग्रहण और दूसरा अध्यवसाय । प्रमाण व्यवस्था
प्रमाण की दृष्टि से प्रमाण दो प्रकार के हैं -एक प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान । दिड नाग के अनुसार वस्तु दो प्रकार की है-एक बाह्य सत स्वलक्षण और दूसरी मानस वस्तु अर्थात् सामान्य लक्षण । अतः ज्ञान भी दो प्रकार का है-एक ग्रहण और दूसरा अध्यवसाय एवं अनुमान । ज्ञान के इन दो प्रकारों का भेद मौलिक है। वे दोनों प्रकार के ज्ञान परस्पर व्यावृत्त हैं, अर्थात् स्वलक्षण का ग्रहण प्रत्यक्ष से ही हो सकता है, और सामान्य लक्षण का ज्ञान, अध्यवसाय तथा अनुमान से ही हो सकता है। एक के क्षेत्र में दूसरा जा नहीं सकता। इसी को प्रमाण व्यवस्था कहा जाता है। न्याय-वैशेषिक 'प्रमाण-संप्लव' को मानता है । एक ही वस्तु अग्नि को हम प्रत्यक्ष से देख सकते हैं, उसका धूम से अनुमान कर सकते हैं, और शब्द प्रमाण द्वारा भी उसका ज्ञान हो जाता है, किया जा सकता है। इसी को प्रमाण-संप्लव कहते हैं।
बौद्धदर्शन का शून्यवाद बौद्धदर्शन का शून्यवाद अत्यन्त जटिल सिद्धान्त है, जो आसानी से समझ में नहीं आता है । सामान्य रूप में इसका अर्थ अभाव होता है । कुछ भी न होना, शून्य समझा जाता है। परन्तु बात यह नहीं है । यदि कुछ भी नहीं है, तो फिर सिद्धान्त किसका? वस्तुतः शून्यवाद को समझना सरल नहीं है, अत्यन्त कठिन है, इसका समझना ।
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