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वस्तु का लक्षण | ७५
१. प्रथम भूमिका में, ज्ञानों को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है।
२. द्वितीय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष, दो भेदों में विभक्त करके पाँच ज्ञानों में से मति और श्रत को परोक्ष कहा गया और शेष तीनों को प्रत्यक्ष कहा गया। इस भूमिका में लोक का अनुसरण करके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को, इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष में स्थान नहीं दिया, परन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार जो ज्ञान आत्म-मात्र-सापेक्ष है, उसको प्रत्यक्ष में स्थान दिया।
३. तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष, उभय में ही स्थान दिया गया है । इस भूमिका में, लोक का अनुगमन स्पष्ट नजर पड़ता है, लोक का प्रभाव है ।
प्रथम भमिका के अनुसार ज्ञान का वर्णन हमें भगवती-सत्र में उपलब्ध होता है। स्थानांग सूत्र में. ज्ञान की परिचर्या द्वितीय भूमिका की कही जा सकती है। इसी भूमिका के आधार पर उमास्वाति ने भी प्रमाणों को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त करके दो में पाँच ज्ञानों का समावेश कर दिया है । तृतीय भूमिका नन्दीसूत्रगत ज्ञान-चर्चा में अभिव्यक्त हो जाती है। अन्य सभी दर्शनों ने इन्द्रिय ज्ञानों को परोक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष माना है । उनको प्रत्यक्ष में स्थान देकर उस लोक मत का समन्वय करना भी नन्दीकार को अभीष्ट था। आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को लक्ष्य में रखकर ही कहा, कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए। लोकव्यवहार के अनुरोध से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा गया है। वस्तुतः वह परोक्ष ही है । जैन दर्शन के आचार्यों ने आगम काल से प्रमाण की चर्चा को महत्व दिया था, और आगम की मान्यता का भी परित्याग नहीं किया। व्यवस्था इस प्रकार है
१. अवधि, मनःपर्याय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। २. थ त परोक्ष ही है।
३. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है, और व्यवहार दृष्टि से प्रत्यक्ष है।
४. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।
आचार्य अकलंक ने तथा उनके अनुगामी अन्य जैन आचार्यों ने प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक, जो दो भेद किये हैं,
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