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१३२ | जैन न्याय शास्त्र : एक परिशीलन
अनेकान्तवाद के निरूपण में, किसी प्रकार का विभेद नहीं है । लेकिन निक्षेप के विषय में वैसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दोनों के पास आगमपरम्परा एक नहीं रही है । निक्षेप का प्रयोग एवं उपयोग, आगम व्याख्या में ही अधिक होता है । आगम दोनों के भिन्न हैं । अतः निक्षेप की परिभाषा और उसके भेद-प्रभेदों में काफी अन्तर आ गया है। दोनों के दार्शनिक ग्रन्थों में निक्षेप का प्रतिपादन- बहुत विरल हुआ है, और न्याय-शास्त्र के ग्रन्थों में तो नाममात्र का ही वर्णन है। तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य में, जो कि तत्त्वार्थ सूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या है, और स्वयं उमास्वाति को कृति है, उसमें निक्षेप का निरूपण है, तथा सर्वार्थसिद्धि में भी वर्णन उपलब्ध है । न्याय ग्रन्थों में आचार्य अकलंकदेव के लधीयस्त्रय में एक पूरा परिच्छेद है, और वाचक यशोविजयकृत जैन तर्क-भाषा में भी एक परिच्छेद है । शेष न्याय ग्रन्थों में इस विषय की उपेक्षा कर दी है, अथवा अनुपयोगी समझा है।
अनुयोगद्वार सूत्र में निक्षेप अनुयोगद्वार सूत्र में निक्षेप के चार भेद हैं-नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप । मुख्य भेद चार ही हैं।
नाम निक्षेप के तीन भेद हैं --यथार्थ नाम, अयथार्थ नाम और अर्थशून्य नाम । नाम के अनुसार गुण हो, तो यथार्थ नाम । नाम के अनुसार गुण न हो, तो अयथार्थ नाम । जिसका कोई अर्थ ही न निकलता हो, वह अर्थ-शून्य नाम ।
स्थापना निक्षेप के चालीस भेद हैं-जो इस प्रकार के कहे जाते
१. काष्ठ की स्थापना। २. चित्र की स्थापना । ३. मोती की स्थापना। ४. मिट्टी की स्थापना । ५. ग्रन्थि की स्थापना। ६. कसीदे की स्थापना। ७. कोरणी की स्थापना । ८. वस्तु की स्थापना । ६. अकस्मात् स्थापना। १०. पट की स्थापना ।
इन दसों के आकार के बीस भेद हैं-इन बीसों की सद्भाव स्थापना, और असद्भाव स्थापना करना, इस प्रकार चालीस भेद होते हैं।
जो पदार्थ आगामी परिणाम की योग्यता रखने वाला हो, उसे उस अवस्था से संबोधित करना जैसे राजा के पुत्र को राजा कहना, यह द्रव्य
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