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१४२ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
जगच्चतुष्टयमय
नाम अपने से भिन्न का नहीं, अभिन्न नामवान् पदार्थ में सम्बन्ध का कारण है । जब श्रोता घट नाम का श्रवण करता है, तब उसे घट आदि से भिन्न और अपने से अभिन्न घट पदार्थ का ही बोध होता है । अतः सभी पदार्थों को नामरूप समझना चाहिए ।
सभी पदार्थ स्थापना रूप हैं, क्योंकि मति, शब्द और घटादि सभी में आकार होता है । नील आदि तथा संस्थान विशेष आदि आकार अनुभव सिद्ध है ।
सभी पदार्थ द्रव्यात्मक हैं । उत्कण, विफण और कुण्डलित सर्पवत् । सर्प कभी फण फैला लेता है, कभी सिकोड़ लेता है, कभी गोलमोल हो जाता है, कभी लम्बा फैल जाता है, लेकिन सभी अवस्थाओं में सर्प रूप द्रव्य तो वही प्रतीत होता है । पर्याय में विकार होता है, द्रव्य में किसी प्रकार का विकार नहीं होता । सभी पदार्थ इसी प्रकार द्रव्य रूप हैं ।
सभी पदार्थ भावात्मक और पर्याय रूप हैं। क्योंकि पर्याय प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । अतएव जगत् के समस्त पदार्थ नामादि चतुष्टय रूप हैं । यह नाम नय, स्थापना नय, द्रव्य नय और भाव नय का समुदायवाद कहा कहा जाता है ।
संसार के समस्त पदार्थ - द्रव्य, गुण और पर्यायरूप हैं । गुणों का परिणमन पर्याय है, गुण सदा द्रव्य में स्थित हैं । द्रव्य के बिना गुण नहीं, गुण के बिना द्रव्य नहीं । अतः जगत् द्रव्य, गुण और पर्याय कहा जाता है ।
निक्षपों को नयों में योजना
चार निक्षेपों में से नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप को द्रव्यार्थिक नय ही स्वीकार करता है । भाव निक्षेप को पर्यायार्थिक नय मान्य करता है | आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के मत के अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
विशेषावश्यक भाष्य में कहा है--नामादि तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नय को और भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय को मान्य है । किन्तु जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने निज के मत के अनुसार नमस्कार के निक्षेपों पर विचार करते हुए कहा है, कि शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय भाव निक्ष ेप को ही स्वीकार करते हैं, और शेष नय सभी निक्ष ेपों को स्वीकार करते हैं । चार निक्ष ेपों से जीव आदि पदार्थों का न्यास अर्थात् विभाग करना चाहिए ।
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