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शब्दार्थ-विवेचन | १५५
है । अतः स्पष्ट है, कि सर्वत्र प्रवृत्ति निमित्त जाति ही है । इसलिए जाति में संकेत ग्रह होना चाहिए। नैयायिक मत
नैयायिक जाति विशिष्ट व्यक्ति में संकेत ग्रह मानते हैं। उनका अभिप्राय है, कि केवल व्यक्ति में संकेत ग्रह मानने पर आनन्त्य और व्यभिचार दोष आते हैं। केवल जाति में संकेत मानने पर शब्द से केवल जाति का ही बोध होने से शब्द से व्यक्ति का बोध नहीं हो सकेगा। यदि यह कहा जाये, कि जाति में ही सकेत ग्रह मानकर आक्षेप से व्यक्ति का बोध हो जायेगा, तो उसका शब्द-बोध में अन्वय नहीं होगा। क्योंकि शब्द शक्ति से प्राप्त अर्थ का ही अन्वय होता है। अतः नैयायिक न केवल जाति में संकेत ग्रह मानते हैं, न केवल व्यक्ति में ही मानते हैं, जाति विशिष्ट व्यक्ति में संकेत ग्रह मानते हैं। बौद्ध मत
बौद्ध नैयायिक अपोह में संकेत ग्रह मानते हैं । उनका कथन है, कि शब्द का अर्थ अपोह होता है, और अपोह का अर्थ है, अतद् व्यावृति अथवा तभिन्नत्व । बौद्ध जाति को नहीं मानते, जाति के स्थान पर अपोह को मानते हैं । उनका मत है, कि अनेक घट व्यक्तियों में जो घटः घटः घटः की प्रतीति होती है, वह अतद् व्यावत्ति है। जैसे घट से भिन्न है, घट को छोड़कर सारा जगत् और सारे जगत् से भिन्न घट है। अतः बौद्ध के मत में, अपोह में संकेत ग्रह माना जाता है। लेकिन यह मत चारु नहीं है। मम्मट का पक्ष
आचार्य मम्मट वैयाकरणों के मत के अनुसार जाति, गुण, क्रिया और यदृच्छा रूप उपाधि में संकेत ग्रह मानते हैं। वे इन सभी मतों का खण्डन कर, वैयाकरणों द्वारा समर्थित जाति आदि चारों में संकेत ग्रह मानने का सिद्धान्त स्वीकार करते हैं।
संकेतित अर्थ चार प्रकार का होता है-जाति, गुण, क्रिया और यदृच्छा। इन चार संकेतित अर्थों के वाचक शब्द भी चार प्रकार के होते हैं-जातिवाचक, गुणवाचक, क्रियावाचक और यदृच्छावाचक । मम्मट का यही पक्ष रहा है। आनन्दवर्धन
आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि-सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक माने जाते हैं। उन्होंने ध्वनि सम्प्रदाय की स्थापना कर आलोचना-शास्त्र में एक नयी
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