Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

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Page 169
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन १. रूढ़ - समुदाय शक्ति के आधार पर अर्थबोध कराने वाले पद । जैसे गो, घट एवं पट । २. यौगिक - अवयवों के द्वारा अर्थ का बोध कराने वाले पद । जैसे पाचक, पाठक एवं वाचक | ३. योग- रूढ़ - अवयव तथा समुदाय शक्ति दोनों के द्वारा अर्थ का बोध कराने वाले पद । जैसे पंकज । पंकाज्जायते इति पंकजः । कीचड़ तथा कृमि आदि । लेकिन कमल में रूढ़ हो गया है । ४. यौगिक रूढ़ - अवयवार्थ और समुदायार्थ का स्वतन्त्र रूप से बोध कराने वाले पद जैसे उद्भिद् तथा मण्डप आदि पद । उद्भिद एक भाग विशेष और लता - गुल्म आदि । मण्डप का अर्थ है - माँड पीने वाला और यज्ञ का स्थान विशेष । वाक्य की परिभाषा वाक्य पदों के समूह को कहते हैं। पदों के समूह के द्वारा सार्थक वाक्य का बनना, कुछ बातों की अपेक्षा रखता है । जैसेकि आकांक्षा, योग्यता और संनिधि | १. जिस दूसरे शब्द के उच्चारण हुए विना जब किसी अन्य शब्द का अभिप्राय समझ में न आये, तब इस प्रकार के उन दोनों पदों का सम्बन्ध आकांक्षा कहा जाता है । २. अर्थ का बोध न होना, योग्यता है । अभिप्राय यह है, कि वाक्य के बोध के लिए यह आवश्यक है, कि उद्देश्य और विधेय दोनों में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए । ३. पद के बिना विलम्ब के उच्चारण को संनिधि कहते हैं । बिना व्यवधान के उच्चारित शब्द ही सार्थक वाक्य का निर्माण कर सकते हैं । शब्द शक्ति के भेद न्याय- शास्त्र में शब्द की विभिन्न वृत्ति हैं । उसके दो भेद हैंअभिधा एवं लक्षणा । ये दोनों वृत्तियाँ शब्द और अर्थ का सम्बन्ध बताती हैं । नैयायिक व्यञ्जना वृत्ति को स्वीकार नहीं करते हैं । उसका अन्तर्भाव अनुमान में कर लेते हैं । अभिधा मुख्य-वृत्ति है, और लक्षणा गौण वृत्ति है । लक्षणा के तीन प्रकार हैं- जैसे कि जहत्स्वार्था, अजहत्स्वार्था और भाग त्याग लक्षणा । वेदान्त भी लक्षणा को स्वीकार करता है । For Private and Personal Use Only

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