Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

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Page 166
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दार्थ-विवेचन | १५७ शब्द काव्य के लिए उपयुक्त नहीं होता है। जो शब्द प्रतीयमान अर्थ से युक्त हो, वही शब्द काव्य के लिए उपयुक्त होता है । ध्वन्यालोक का विषय १. ध्वन्यालोक की प्रथम विशेषता है-ध्वनि की स्थापना । आचार्य आनन्दवर्धन ने उसे काव्य की आत्मा के रूप में स्थापित किया था। २. ध्वन्यालोक की दूसरी विशेषता है---ध्वनि काव्य की प्रतिष्ठा । ध्वनि काव्य उत्तम काव्य है। ३. ध्वन्यालोक की तीसरी विशेषता है-अर्थ तत्त्व विचार । उनके अनुसार अर्थ दो प्रकार के होते हैं-वाच्य और प्रतीयमान । ४. ध्वन्यालोक की चतुर्थ विशेषता है-शब्द तत्व विचार । आनन्दवर्धन शब्द को वाचक-ध्वनि के रूप में मानते हैं। ५. ध्वन्यालोक की पंचम विशेषता है-शब्द शक्ति विचार । उनके अनुसार शब्द शक्तियाँ तीन प्रकार की हैं-अभिधा, गुण-वृत्ति अर्थात् लक्षणा और ध्वनि अर्थात् व्यंजना। अभिनव गुप्त अलंकार शास्त्र के इतिहास में, आचार्य अभिनव गुप्त का महान् योगदान रहा है । गुप्त, शैव दर्शन के परम विद्वान् तथा तन्त्र-शास्त्र के पारंगत पण्डित थे । साहित्य में इनके दो ग्रन्थ अति प्रसिद्ध हैं १. अभिनव भारती-भरत के नाटय शास्त्र की टीका है। इसमें प्राचीन अलंकाराचार्यों एवं संगीताचार्यों के मतों का उल्लेख किया गया है। वस्तुतः यह टीका न होकर, अभिनव गुप्त का एक मौलिक ग्रन्थ बन गया है । २. ध्वन्यालोक लोचन-आचार्य आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक का एक विशाल टीका ग्रन्थ है। इसमें प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों की आलोचना की है। यह भी एक मौलिक ग्रन्थ है। आचार्य अभिनव गुप्त रस सम्प्रदाय के परम पोषक थे। उन्होंने रस ध्वनि को ही काव्य की आत्मा के स्थान पर रखा है। काव्यगत रसों का तथा उनके भेद-प्रभेदों का जितना सूक्ष्म वर्णन उन्होंने किया है, वैसा अन्य किसी विद्वान् ने नहीं किया है । शब्द की तीन वृत्तियों का अर्थात् अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना का भी विस्तार से वर्णन किया है। विश्वनाथ का साहित्य-दर्पण अलंकार-शास्त्र के इतिहास में इस साहित्य दर्पण ग्रन्थ का गौरव For Private and Personal Use Only

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