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शब्दार्थ-विवेचन
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शब्द, अर्थ और इन दोनों का सम्बन्ध मुख्यतया व्याकरण का विषय है । परन्तु अन्य शास्त्रों में भी इस पर विचार किया गया है । जैसे कि न्यायशास्त्र में, और काव्य-शास्त्र में । न्याय और मीमांसा में, इस पर विशेष रूप से विस्तृत विचार किया गया है। विभिन्न दार्शनिकों ने शब्द प्रमाण का विशद निरूपण करते समय शब्द की परिभाषा, शब्दों के भेद तथा शब्दार्थ का परस्पर सम्बन्ध पर अपने विचार प्रकट किये हैं। वहाँ शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का अभिप्राय शब्द से अर्थ-प्रत्यायन की प्रक्रिया से समझना चाहिए। इस विषय में भाषा-परिच्छेदकार नैयायिक विश्वनाथ पञ्चानन ने कहा है, कि शब्द-बोध रूप फल के प्रति पद-ज्ञान करण अर्थात् असाधारण कारण है, पदार्थ-ज्ञान द्वार अर्थात् व्यापार है, अवान्तर व्यापार है और शक्ति-ज्ञान सहकारी कारण है। यह नेयायिक का अभिप्राय है । लेकिन शब्दार्थ सम्बन्ध के विषय में एक मत नहीं है ।
मीमांसक शब्द एवं अर्थ में, नित्य सम्बन्ध मानते हैं । वैशेषिक तथा नव्य नैयायिक शब्दार्थ सम्बन्ध की एकरूपता में आस्था नहीं रखते । नैयायिकों के अनुसार शब्द अनित्य है। शब्द के समान अर्थ की परिभाषा, प्रभेद आदि का निरूपण भी दर्शन में किया गया है। तत्व-चिन्तामणि में, जो नव्य न्याय का मुख्य ग्रन्थ माना गया है, उसमें अर्थ की परिभाषा इस प्रकार है--"यत्परः शब्दः स शब्दार्थः ।" शब्द जिस परक होता है, उस भाव को अर्थ कहते हैं।
शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में, प्रायः समस्त शास्त्रकारों ने विचार किया है। शब्द को प्रमाण मानने वालों को तो विचार करना आवश्यक
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