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१४८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
ही था, लेकिन जिन्होंने प्रमाण रूप में शब्द को स्वीकार नहीं किया, उन्हें भी शब्द और अर्थ पर विचार करना पड़ा है। शब्द तो व्यवहार मात्र का आधार माना गया है। अर्थ बिना शब्द के रह नहीं सकता। वाचक है, तो उसका वाच्य भी होना चाहिए । अतः शब्द को प्रमाण नहीं मानने वाले चार्वाक और बौद्ध को भी व्यवहार चलाने के लिए शब्द और अर्थ का विचार करना पड़ा है।
शब्दार्थ पर अर्थात् वाच्य वाचक पर विचार करने वाले दार्शनिकों में मुख्य तीन हैं, जो इस प्रकार हैं- स्फोटवादी वैयाकरण, ध्वनिवादी आलंकारिक और प्रमाणवादी नैयायिक । इन तीनों ने शब्दार्थ पर गम्भीर विचार किया है। शब्द में तीन प्रकार की शक्ति स्वीकार की है-अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना। कुछ विचारकों ने एक शक्ति, तात्पर्य वत्ति को भी स्वीकार किया है। लेकिन अन्य सबका समावेश तीनों में हो जाता है। तीनों ने अपनी-अपनी पद्धति से विचार किया है । व्याकरण को दर्शनशास्त्र प्रदान करने वाले नागेश भट्ट हैं। आचार्य आनन्दवर्धन ने तथा आचार्य मम्मट ने व्यञ्जना की सिद्धि के द्वारा अलंकार शास्त्र को दर्शन का रूप दिया । नैयायिकों ने शब्द को चतुर्थ प्रमाण सिद्ध कर दिया।
परम लघु-मंजूषा नागेश भट्टकृत परम-लघु-मंजूषा नव्य व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसमें चतुर्दश प्रकरण हैं, उन में स्फोट-निरूपण भी एक प्रकरण अर्थात् अध्याय है, जिसमें वैयाकरणों के प्रसिद्ध सिद्धान्त स्फोटवाद पर विचार किया गया है। इस स्फोट शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है'स्फोटः स्फुटन्ति अर्थाः यस्मात् । विकसन अर्थ में स्फुट धातु से अपादान अर्थ में 'घ' प्रत्यय होकर स्फोट शब्द निष्पन्न होता है । उसके आठ भेद
१. वर्ण जाति स्फोट
२. वर्ण व्यक्ति स्फोट ३. पद जाति स्फोट
४. पद व्यक्ति स्फोट ५. वाक्य जाति स्फोट
६. वाक्य व्यक्ति स्फोट ७. अखण्ड पद स्फोट
८. अखण्ड वाक्य स्फोट वर्ण, पद और वाक्य के भेद से स्फोट तीन प्रकार के हैं-- १. जिसमें वर्ण ही वाचक हो, वह वर्ण स्फोट । २. जिसमें पद ही वाचक हो, वह पद स्फोट ।
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