Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

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Page 150
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org निक्षेप सिद्धान्त | १४१ परिपाटी में इन्हीं निक्ष ेपों का आश्रय लिया जाता है। जैसे कि ज्ञान का प्रतिपादन करते समय पहले नाम, स्थापना, और द्रव्य रूप में, इसका विवेचन किया जाएगा, और इसके बाद भाव ज्ञान के रूप में असली वस्तु का कथन होता है । लक्षण और भेद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाध्याय यशोविजयजी ने निक्ष ेप का लक्षण करते हुए कहा है, कि शब्द और अर्थ की विशेष रचना, जिससे प्रकरण आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निवारण होकर यथास्थान विनियोग होता है, वह निक्षेप कहा जाता है । उस निक्ष ेप के चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनके अनन्तर भेदों की चर्चा नहीं की है । ४. नामनिक्ष ेप -- किसी ने अपने पुत्र का नाम इन्द्र रखा । इन्द्र शब्द शक का वाचक है: पर पुत्र का नाम रखते समय उसके यथार्थ अर्थ पर दृष्टि नहीं रखी जाती । जिसका नाम इन्द्र रखा गया है, वह इन्द्र के पर्याय वाचक शत्र एवं पुरन्दर आदि शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता । नाम और नामवान् पदार्थ में, उपचार से अभेद होता है । अतः इन्द्र यह नाम, नाम कहा जाता है, साथ ही इन्द्र नाम वाला व्यक्ति भी इन्द्र कहा जाता है । २. स्थापना निक्षेप - जो वस्तु उस मूलभूत अर्थ से रहित हो, किन्तु उसी के अभिप्राय से आरोपित की जाए, वह स्थापना निक्षेप है । वह चित्र आदि में तदाकार और अक्ष आदि में अतदाकार होती है । वह चित्र की अपेक्षा अल्पकालिक है, और नन्दीश्वर द्वीप के चैत्यों की शाश्वत प्रतिमा की अपेक्षा शाश्वत भी होती है । ३. द्रव्य निक्ष ेप - भूत भाव अथवा भावी भाव का जो कारण निक्षिप्त किया जाता है, वह द्रव्य निक्ष ेप कहा जाता है । जैसे कि जिस घट में भूतकाल में घृत रखा था, अथवा भविष्य में रखा जाएगा, वर्तमान में भी उसे घृत घट कहा जाता है । ४. भावनिक्ष ेप - विवक्षित क्रिया की अनुभूति से युक्त जो स्वतत्त्व निक्षिप्त किया जाता है, वह भाव निक्षेप है । जैसे वर्तमान में इन्दन क्रिया करने वाला 'भाव- इन्द्र' होता है । तर्क भाषा में निक्षेपों का कथन, न तो बहुत न अति संक्ष ेप में ही है । विषय की गम्भीरता के भाव और भाषा गम्भीर अवश्य हो गये हैं । For Private and Personal Use Only विस्तार से है, और कारण कहीं-कहीं पर

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