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निक्षेप सिद्धान्त | १३६
जैन तर्क - भाषा में निक्षेप
वाचक यशोविजय विरचित जैन तर्क- भाषा एक अत्यन्त सुन्दर कृति है, जो नव्य न्याय की भाषा एवं शैली में रची गयी है । न्याय शास्त्र में तीन तर्क भाषा हैं. मोक्षाकर की बौद्ध तर्क भाषा, केशव मिश्र की तर्क भाषा और यशोविजय उपाध्याय की जैन तर्क भाषा । प्रस्तुत ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है - प्रमाण, नय और निक्षेप । जैन तर्क भाषा में पाँच ज्ञान और चार निक्षेपों का जो वर्णन है, उसका आधार विशेषावश्यक भाष्य है । दूसरे प्रमाण और नयों का प्रतिपादन स्याद्वाद रत्नाकर के आधार पर है । जैन तर्क भाषा की मुख्य विशेषता यह है, कि इसमें आगमिक एवं तार्किक दोनों परम्पराओं का सुन्दर समन्वय मिलता है । विषय संक्षिप्त होने पर भी स्पष्ट है । जहाँ तक प्रमाण और नय का प्रश्न है, श्वेताम्बर और दिगम्बरों में किसी प्रकार का भेद नहीं | किन्तु निक्षेप के सम्बन्ध में मान्यता एक नहीं है, दोनों में काफी भेद है । निरूपण की पद्धति भी एक नहीं है । यशोविजयजी ने यहाँ विशेषावश्यक का ही अनुसरण किया है । क्योंकि भाष्य में निक्षेपों की बड़ी लम्बी चर्चा की है । वह वर्णन बहुआयामी और बहुमुखी है । दिगम्बर परम्परा का निक्षेप वर्णन अकलंक कृत लघीयस्त्रय तथा उसकी टीका न्याय - कुमुदचन्द्र पर आधारित है । अतः दोनों परम्पराओं में भेद स्वाभाविक है । भेद होने पर भी किसी प्रकार का विरोध नहीं है ।
तर्कभाषा का विषय
तर्कशास्त्र का मुख्य विषय प्रमाण माना जाता है । इसमें प्रमाण का स्वरूप, लक्षण, भेद और फल आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है । प्रमाण के प्रतिपादन में, आचार्य वादिदेव सूरि कृत प्रमाण-नय-तत्वालोक और उस पर स्याद्वाद रत्नाकर का उपयोग किया गया है। जैन दृष्टि से प्रमाण का निरूपण सुगम और सुबोध है । किन्तु कहीं-कहीं पर चर्चा गम्भीर भी है ।
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नय, जैन दर्शन की मौलिक देन है । क्योंकि अन्य किसी भी वैदिक न्याय और बौद्ध न्याय में इस विषय का नाम मात्र भी नहीं है । नयवाद पर ही अनेकान्तवाद टिका हुआ है । वस्तुतः नय का मुख्य सम्बन्ध लोक व्यवहार के साथ है। बिना नय के लोक व्यवहार चल ही नहीं सकता । एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भ्राता, पति आदि शब्दों के द्वारा प्रकट किया