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१३८ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
दोनों कृतियों पर श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने भाष्य, टीका और वृत्ति लिखी हैं । दोनों ग्रन्थ गहन गम्भीर है ।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने संस्कृत भाषा में, जैन न्याय का प्रथम ग्रन्थ दिया, यह उनका महान् अवदान है । अतः वे जैन न्याय के पिता एवं जनक हैं । उन्होंने प्रमाण के तीन भेद कहे हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और
आगम ।
सन्मति तर्क सूत्र की रचना आचार्य ने प्राकृत भाषा में की है । इसमें तीन काण्डों में भिन्न-भिन्न विषय हैं। नय और अनेकान्त, दर्शन और ज्ञान तथा द्रव्य, गुण और पर्याय । इन विषयों का इस ग्रन्थ में गहन चिन्तन किया है | श्वेताम्बर परम्परा का यह मूर्धन्य और अतिशय ग्रन्थ माना गया है । विस्तृत विवेचन के साथ इसका प्रकाशन हो चुका हैगुजराती भाषा में भी और हिन्दी भाषा में भी । पण्डितप्रवर सुखलालजी
विवेचन किया है ।
निक्षेप कथन
सन्मति सूत्र का मुख्य विषय नय है, प्रमाण और निक्षेप नहीं । प्रमाण का प्रतिपादन आचार्य ने न्यायावतार में कर दिया । नयों का प्रतिपादन सन्मति सूत्र में विस्तार से किया है । प्रथम काण्ड की छठी गाथा में आचार्य ने निक्षेप का कथन अत्यन्त संक्षेप में किया है ।
उन्होंने कहा है, कि जिससे लोक का व्यवहार चलता है, उसे निक्षेप कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का व्यवहार चार प्रकार से होता है। ये चार प्रकार हैं, चार निक्षेप - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनमें से प्रथम तीन - नाम, स्थापना और द्रव्य, ये द्रव्यार्थिक नय के निक्षेप हैं । किन्तु जो भाव निक्षेप है, वह पर्यायार्थिक नय का निक्षेप कहा गया है। यही इनका परमार्थ है ।
आगे कहा गया है, कि नाम से नाम वाला, स्थापना से स्थापना वाला, द्रव्य से द्रव्य वाला, ये परस्पर भिन्न नहीं हैं । अतः अभेद होने से तीनों द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं । परन्तु प्रत्येक समय में भाव में भिन्नता होने से भाव निक्षेप पर्याय रूप है । अतः भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय का विषय है । द्रव्यार्थिक नय अभेद रूप तथा सामान्य कथन करता है, किन्तु पर्यायार्थिक नय का विषय भेद रूप पर्याय की विशेषताओं का कथन करना है । दोनों नय परस्पर सापेक्ष होने के कारण ही ये नय हैं । निरपेक्ष नय मिथ्या नय होते हैं ।
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