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१२० | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
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अमर कृति अपूर्ण ही रही । अनुमान का भी पूरा वर्णन नहीं हो सका । आगम प्रमाण तक रचना पहुंची ही नहीं । अतः इसमें सप्त भंगी न्याय और नयों का तथा उनके आभासों का वर्णन नहीं हो सका । फिर भी उनकी वृत्ति में दो मूल नयों का उल्लेख है - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । उनकी विशेष व्याख्या का वहाँ प्रसंग भी नहीं था । आचार्य हेमचन्द्र श्वेताम्बर परम्परा के महान् श्रतधर हैं । न्याय दीपिका
| लेकिन विषय का
अभिनव धर्म भूषण यति की यह एक लघु कृति प्रतिपादन संक्षिप्त होने पर भी स्पष्ट और सुन्दर है धर्मभूषण दिगम्बर परम्परा के थे । प्रमाण के लक्षण, प्रत्यक्ष और परोक्ष, इसके मुख्य विषय हैं । किन्तु इसमें नयों का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन किया है। मूल नय दो मान कर उनके भेदों का उल्लेख है । लेकिन वह वर्णन उलझन भरा है । उसमें विषय की स्पष्टता नहीं की जा सकी । आलाप पद्धति
यह नय विषयक एक सुगम और सुबोध कृति है । इस लघु कृति में काफी विषय को समेट लिया गया है । इसके रचनाकार आचार्य देवसेन हैं | दिगम्बर परम्परा के आचार्य हैं । इस कृति में प्रमाण का भी वर्णन है, किन्तु मुख्य तो नयों का वर्णन है । भाषा अत्यन्त सरल है । आचार्य देवसेन ने नयों का वर्णन दो दृष्टियों से किया है - दार्शनिक दृष्टि और अध्यात्म दृष्टि । मूल नय दो माने हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक | पहले के तीन भेद हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार | दूसरे के चार भेद हैं- ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।
अध्यात्म दृष्टि से नयों के मूल में दो भेद हैं - निश्चयनय और व्यवहारनय | निश्चय के दो भेद हैं- शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय । व्यवहारनय के दो भेद हैं- सद्भुत और असद्भुत । सद्भूत के दो भेद हैं- उपचरित और अनुपचरित। इस प्रकार देवसेन ने अपने लघु ग्रन्थ में नयों का जमकर वर्णन किया है । विषय कहीं पर भी अधूरा नहीं रहा ।
जैन दर्शन का मुख्य विषय वस्तुतः नय है, जिस पर अनेकान्तवाद का और स्याद्वाद का भव्य रमणीय प्रासाद खड़ा हैं । अतः अनेकान्त को समझने के लिए नयवाद को समझना, आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । यह जैन दर्शन का मुख्य तत्व है ।
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