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१२४ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
रूप में समझना आवश्यक है । जैन दर्शन के अनुसार निक्षेप का लक्षण यह है, कि शब्दों का अर्थों में, और अर्थों का शब्दों में, आरोप करना, अर्थात् न्यास करना। एक शब्द के सम्भावित अर्थों का पता लगाना, और उन अर्थों में शब्द का प्रयोग करना । व्याकरण और निक्षप
संस्कृत व्याकरण के अनुसार शब्द अनेक प्रकार के होते हैं । जैसेकि नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । घट, पट आदि नाम शब्द हैं । पठति, गच्छति आदि आख्यात अर्थात् क्रिया शब्द हैं । प्र, परा, उप आदि उपसर्ग और निपात शब्द हैं। इन चार प्रकार के शब्दों में, निक्षेप का सम्बन्ध केवल नाम से है। अन्य शब्दों के साथ निक्षेप का सम्बन्ध नहीं होता। क्यों नहीं होता? इसके उत्तर में कहा गया है, कि आख्यात, उपसर्ग और निपात शब्द वस्तुवाचक नहीं होते हैं। निक्षेप का सम्बन्ध उसी शब्द से रहता है, जो वस्तुवाचक होता है। व्याकरण के अनुसार वस्तुवाचक शब्द नाम ही होता है । अतः उक्त चार प्रकार के शब्दों में से निक्षेप का सम्बन्ध केवल नाम के साथ ही है।
निक्षेप और नय भारत के अन्य दर्शनों में, वैदिक और बौद्ध दर्शनों में, निक्षेप और नय का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । दर्शनों में, जैन दर्शन की अपनी ही यह एक मौलिकता है। प्रत्येक दर्शन की अपनी मौलिकता होतो है । जैन दर्शन को निक्षेप और नय, क्यों स्वीकार करने पड़े ? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है, कि जैन दर्शन, अनेकान्त दर्शन रहा है, वह एकान्तवाद को स्वीकार नहीं करता। एकान्त नित्यवाद तथा एकान्त क्षणवाद को वह नहीं मानता । कथंचित् नित्य और कथंचित अनित्य को मानता है । अनेकान्त दर्शन की व्याख्या, बिना प्रमाण, बिना नय और बिना निक्षेप को समझे, नहीं की जा सकती। अतः निक्षेप और नय का विशेष प्रतिपादन, जैन दर्शन में किया गया है । प्रमाण का प्रतिपादन तो अन्य दर्शनों में भी बहुलता से हुआ है। परिभाषा और प्रयोग
जब तक किसी वस्तु की परिभाषा को न समझा जाये, तब तक उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। अतः निक्षेप की परिभाषा को समझना परम आवश्यक है । वक्ता के अभिप्राय को ठीक से समझने की पद्धति को ही निक्षेप कहा गया है। किसी भी शब्द एवं वाक्य का अर्थ करते
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