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निक्षेप सिद्धान्त | १२७
१. नाम राजा
२. स्थापना राजा ३. द्रव्य राजा
४. भाव राजा जो नाम भर का राजा हो, वह नाम राजा है। राजा का चित्र, राजा की मूर्ति, राजा की प्रतिकृति को स्थापना राजा कहा जाता है। जो वर्तमान क्षण में राजा न हो, किन्तु अतीत में रह चुका हो, अथवा अनागत में होगा, उसको द्रव्य राजा कहते हैं। जो वर्तमान क्षण में, राजपद का अनुभव करता हो, जो राज्य सिंहासन पर स्थित हो, उसको भाव राजा कहा गया है। निक्षेप में नय-योजना
मूल नय दो हैं-द्रव्यास्तिक नय तथा पर्यायास्तिक नय । नयों के अन्य भेद तथा प्रभेद. इन दो का ही विस्तार है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति-सूत्र में कहा, कि मुल नय दो ही हैं, शेष इनका विस्तार है। प्रथम के दो भेद हैं--संग्रह नय और व्यवहार नय। द्वितीय के चार भेद ! हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। दोनों के मिलाकर नय के पड़ भेद होते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने नगम नय को स्वीकार नहीं किया। उसका समावेश संग्रह एवं व्यवहार में हो जाता है।
___ शास्त्र और लोक के वाक्यों में, पर्याय विशेष का वचन प्रतिपादित किया जाता है। सब प्रकार का वचन क्रम सामान्य और विशेष अथवा द्रव्यास्तिक एवं पर्यायास्तिक, उभय नय पर आश्रित है। वस्तुस्थिति न केवल द्रव्यास्तिक नय ही है, और न केवल पर्यायास्तिक नय रूप ही है । वह तो उभय रूप है । यही है, अनेकान्त दर्शन । एकान्त दर्शन एक दृष्टिकोण को लेकर चलता है, दूसरे दृष्टिकोण का निषेध करता है। अतः जैन दर्शन के अनुसार, एकान्त दर्शन, मिथ्यादर्शन होता है। अनेकान्त दर्शन, सम्यग्दर्शन होता है। प्रत्येक वस्तु जब अनन्तधर्मात्मक है, तब उसका एक धर्म लेकर ही उसे सम्पूर्ण मान लेना, एकान्तवाद है । अनेकान्तवाद वस्तु के अन्य धर्मों को स्वीकार करता है। नय की सीमा
__ अनेकधर्मात्मक वस्तु का किसी एक धर्म के आधार पर विचार करना, नय कहलाता है। वह नय सात प्रकार का है-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । नयों में भारतीय दर्शन की समस्त एकान्तवादी परम्पराओं का समावेश हो जाता है। जैसे कि संग्रह में सांख्य का, परम संग्रह में वेदान्त का, व्यवहार में चार्वाक का,
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