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नय-निरूपणा | ११६ माने हैं--द्रव्यार्थिक नय और पर्यायाथिक नय । प्रधानतया द्रव्य की विवक्षा करने वाले नय को द्रव्यार्थिक कहते हैं । प्रधानतया पर्याय की विवक्षा करने वाले नय को पर्यायार्थिक कहते हैं । द्रव्याथिक के तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह
और व्यवहार । पर्यायाथिक के चार भेद होते हैं । जैसे कि ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।
आचार्य ने सात नयों का और उनके सात आभासों का भी वर्णन किया है । आभासों का लक्षण पीछे दिया जा चुका है। नयों को समझने का दृष्टान्त
प्रमेय-रत्न-माला टीका के टिप्पणकार ने एक बहुत सुन्दर रूपक दिया है, जैसे कि
कहीं पर किसी पक्षी के शब्द को सुनकर नैगम नय की दृष्टि से कहा जाएगा, कि गाँव में पक्षी बोल रहा है । संग्रह नय कहेगा, कि वृक्ष पर पक्षी बोल रहा है । व्यवहार नय कहेगा, कि विटप पर पक्षी बोल रहा है । ऋजूसूत्र नय कहेगा, कि शाखा पर पक्षो बोल रहा है। शब्द नय कहेगा, कि घोंसले में पक्षी बोल रहा है। समभिरूढ़ नय कहेगा, कि वह अपने शरीर में बोल रहा है । एवंभूत नय कहेगा, कि वह अपने कण्ठ में बोल रहा है।
जिस प्रकार यहाँ पक्षी के बोलने के प्रदेश को लेकर उत्तरोत्तर क्षेत्र विषयक सूक्ष्मता है, उसी प्रकार सातों नयों के विषय में उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयता समझनी चाहिए । आचार्य नाणिक्यनन्दी
परीक्षामुख सूत्र न्याय विषय का प्रारम्भिक सूत्रात्मक ग्रन्थ है । सूत्र सरल एवं सुबोध हैं, परन्तु इसमें प्रमाण-नय-तत्त्वालोक जैसी विषय की व्यापकता नहीं है । नय जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर, जो जैन दर्शन की अपनी विशेषता है, उस पर कुछ भी नहीं लिखा, जबकि जैन तर्क-भाषा जैसे लघु ग्रन्थ में भी उपाध्याय यशोविजयजी ने नय तथा उनके आभासों पर खूब लिखा है। फिर भी परीक्षामुख प्रभाण विषयक एक सुन्दर कृति है। प्रमाण-मीमांसा
प्रमाण-मीमांसा आचार्य हेमचन्द्र की अमर रचना कही जा सकती है। सूत्रों की रचना और उन पर विस्तृत वत्ति की रचना भी आचार्य ने स्वयं की है । मूलकार भी स्वयं हैं, और वृत्तिकार भी स्वयं हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों का विशद वर्णन किया गया है। लेकिन आचार्य की यह
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