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११० | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
प्रथम उदाहरण में, चैतन्य धर्म मुख्य है, और सत्त्व को चैतन्य का विशेषण करके गौण कर दिया गया है । द्वितीय उदाहरण में, पर्यायवत् द्रव्य को गौण करके वस्तु की मुख्य रूप में विवक्षा की है। तृतीय उदाहरण में, जीव मुख्य है और नुखी विशेषण गौण पड़ गया है । विशेष्य मुख्य होता है, और विशेषण गौण हो जाता है ।
नैगमाभात
दो धर्मों का, दो धर्मियों की और धर्म तथा धर्मी का एकान्त भेद करना, नैगमाभास है । अनेकान्तवाद के अनुसार, दो धर्मों में, दो धर्मियों में तथा धर्म और धर्मी में एकान्त भेद नहीं होता । कथंचित् भेद ही हो सकता है। एकान्त भेद को मानने वाला नैगम नय नहीं होता, नैगमाभास कहा जाता है । जैसे कि आत्मा में सत्त्व और चैतन्य को सर्वथा पृथक् मानना । दोनों में कथंचित् भेद हो सकता है, सर्वथा भेद नहीं हो सकता है | जैसे हेत्वाभास हेतु का दोष माना गया है, वैसे ही नैगम का आभास, नैगम नय का दोष है । नैगमाभास में नैगम न होकर, नैगम जैसा आभास होता है, नैगम का भ्रम हो जाता है ।
संग्रह नय
जो विचार सामान्य विशेषात्मक वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करता, और विशेष अंश की उपेक्षा कर देता है, वह संग्रह नय कहा जाता है । उसके दो भेद हैं- पर संग्रह और अपर संग्रह | यह नय विशेष की ओर ध्यान न देकर, केवल एक सत्ता रूप पर सामान्य को तथा अवान्तर सत्ता रूप द्रव्य एवं जीवत्व आदि आर सामान्य को ही ग्रहण करता है । सामान्य के दो भेद होने से संग्रह नय के भी दो भेद हो जाते हैं ।
आचार्य ने पर संग्रह का लक्षण इस प्रकार किया है- अशेष विशेषों की ओर उदासीनता रख कर, एक मात्र शुद्ध द्रव्य सन्मात्र को ही ग्रहण करने वाला विचार । इसी को पर संग्रह कहते हैं । जैसे समग्र विश्व एक है, सब में सत्ता होने से । पर सामान्य को महासत्ता कहा गया है । महासत्ता की अपेक्षा समस्त संसार एक है। क्योंकि एक भी पदार्थ सत्ता - शून्य नहीं है । यह पर संग्रह का कथन है ।
पर संग्रह नवाभास
पर संग्रह नयाभास की परिभाषा इस प्रकार है- जो अभिप्राय एकान्त सत्ता मात्र को ही ग्रहण करता हो, और घट-पट आदि विशेषों का
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