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नय - निरूपणा | ११५
नयों की यह अपनी मर्यादा होती है । यह एक प्रकार की व्यवस्था है । पूर्व - पूर्व नय स्थूल होता है, और उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म होता जाता है । सबसे अधिक सूक्ष्म एवंभूत नय है । सबसे अधिक स्थूल नैगम नय होता है | इसको अल्पत्व-बहुत्व कहते हैं ।
नय सप्तभंगी
सप्तभंगी का अर्थ है - सात विकल्पों का समुदाय | भंग का अर्थ है - विकल्प | अतः सप्तभंगी शब्द पारिभाषिक शब्द है । इसका प्रयोजन एवं प्रयोग जैन दर्शन में होता है । सप्तभंगी न्याय स्याद्वाद का आधार है । इसके दो भेद हैं- प्रमाण सप्तभंगी और दूसरी है, नय सप्तभंगी ।
प्रमाण वाक्य के समान नय वाक्य भी अपने विषय में प्रवृत्त होकर, विधि और निषेध की विवक्षा से सप्तभंगी को प्राप्त होता है। नय वाक्य का अर्थ है - विकलादेश । जिस प्रकार विधि - निषेध की अपेक्षा से प्रमाण सप्त भंगी बनती है, उसी प्रकार नय सप्त भंगी भी बनती है। नय सप्त भंगी में भी 'स्यात् तथा एव' पद लगाया जाता है । प्रमाण सप्त भंगी सकल वस्तु को प्रकाशित करती है, और नय सप्त भंगी वस्तु के एक धर्म को ही प्रकाशित कर सकती है । अतः एक सकलादेश है और दूसरी विकलादेश कही जाती है ।
नय का फल
जैसे प्रमाण का फल होता है, वैसे ही नय का भी फल होता है । आचार्य का कथन है कि प्रमाण के समान नय के फल की भी व्यवस्था होनी चाहिए । प्रमाण का साक्षात्फल अज्ञान की निवृत्ति माना गया है । वही फल नय का भी माना जाना चाहिए । प्रमाण से वस्तु सम्बन्धी अज्ञान दूर होता है और नय से वस्तु के अंश सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति होती है । उपादान-बुद्धि, हान-बुद्धि और उपेक्षा बुद्धि भी नय के परोक्ष फल होते हैं । नय का फल नय से कथंचित् भिन्न भी होता है, और कथंचित् अभिन्न भी होता है । अनेकान्त दर्शन में एकान्त भिन्नत्व और एकान्त अभिन्नत्व नहीं होता है ।
जैन तर्क भाषा में नय
जैन तर्क भाषा उपाध्याय यशोविजयजी की एक अत्यन्त सुन्दर एवं रुचिर कृति है । यह एक लघु ग्रन्थ है । तीन भागों में विभक्त है -- प्रमाण, नय और निक्षेप । तीनों विषय जैन दर्शन के मूलभूत आधार माने जाते
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