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११४ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन इसी आधार पर उसको समभिरूढ नयाभास कहा गया है। जैन दर्शन अनेकान्त को स्वीकार करता है, एकान्त को नहीं । फिर भले वह एकान्त विचार का हो, अथवा शब्द का हो । एवंभूत नय
जो विचार, शब्दों की प्रवृत्ति की निमित्त रूप क्रिया से युक्त पदार्थ को उस शब्द का वाच्य मानता हो, वह एवंभूत नय कहा गया है। जैसे इन्दन क्रिया का अनुभव करने वाला इन्द्र, शकन क्रिया में परिणत शक और पूरदारण क्रिया में प्रवृत्त पुरन्दर होता है। यह एवंभूत नय प्रत्येक शब्द को क्रिया शब्द मानता है । प्रत्येक शब्द से किसी न किसी क्रिया का अर्थ प्रकट होता है। जैसे पाचक शब्द से पाक क्रिया का बोध होता है। जब व्यक्ति पका रहा है, तभी वह पाचक होता है। अन्य काल में वह पाचक नहीं होता। यही भाव एवं भूत नय कहा जाता है। यह उसका स्वरूप है। एवंभूत नयाभास
___ जो विचार, क्रिया शुन्य वस्तु को उस शब्द का वाच्य मानने का निषेध करने वाला हो, वह एवंभूत नयाभास है। जैसे विशेष प्रकार की चेष्टा से शून्य घट नामक वस्तु घट शब्द का वाच्य नहीं है। क्योंकि वह घट शब्द की प्रवृत्ति का कारणरूप क्रिया से शुन्य है, जैसे कि पट आदि । एवंभूत नय क्रिया से युक्त पदार्थ को ही उस क्रिया-वाचक शब्द से कथित करता है, किन्तु अपने से भिन्न का निषेध नहीं करता । जो विचार एकान्त रूप से क्रिया युक्त पदार्थ को ही शब्द का वाच्य मानने के साथ उस क्रिया से रहित वस्तु को उस शब्द के वाच्य होने का निषेध करता है, वह एवंभूत नयाभास कहा गया हैं । आभास मिथ्या ज्ञान । अर्थनय और शब्दनय
सात नयों में प्रथम के चार नय तो अर्थनय कहे जाते हैं। क्योंकि ये चारों ही अर्थ का निरूपण करते हैं। अतः अर्थनय हैं। अन्त के तीन नय शब्दनय कहलाते हैं। क्योंकि ये तीनों शब्द के वाच्य अर्थ को ग्रहण करने वाले हैं। किस शब्द का वाच्य क्या होता है ? इसका कथन करते हैं । अतः तीनों शब्दनय कहे जाते हैं। नयों में अल्पबहुत्व
आचार्य वादिदेव सूरि सप्त नयों के सम्बन्ध में कहते हैं, कि पूर्वपूर्व नय विशाल विषय होते हैं। उत्तर-उत्तर नय अल्प विषय होते हैं।
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