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नय-निरूपणा | १०३
मित अंश कहते हैं । नयों का इस प्रकार का प्रतिपादन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । यह तर्क पद्धति से नयों का विभाजन है ।
कालकृत भेद का आलम्बन लेकर वस्तु विभाग का प्रारम्भ होते ही ऋजुसूत्र नय माना जाता है, और वहीं से पर्यायास्तिक नय का प्रारंभ समझा जाता है । अतः ऋजुसूत्र नय को पर्यायास्तिक नय का मूल आधार कहा गया है। बाद के शब्द आदि जो तीन नय हैं, वे ऋजुत्र के भेद हैं। फिर भी ऋज़मत्र आदि चारों नय पर्यायास्तिक के ही भेद माने जाते हैं। शब्द नयों के भेद
जो दृष्टि तत्त्व को केवल वर्तमान काल तक ही सीमित करती है । भूत और भावी काल को कार्य के असाधक मानकर उनको स्वीकार नहीं करती, इस प्रकार की क्षणिक दृष्टि को ऋजूसूत्र नय कहा जाता है।।
__ वर्तमान काल के तत्व में भी जो दृष्टि लिंग और पुरुष आदि के भेद से भेद को स्वीकार करती है, उसको शब्द नय कहा गया है।
शब्द नय द्वारा मान्य समान लिंग और वचन आदि के अनेक शब्दों के एक अर्थ में व्यतात्ति के भेद से, पर्याय के भेद से जो दृष्टि अर्थभेद की परिकल्पना करती है, वह समभिरूढ़ नय होता है ।
समभिरूढ़ नय द्वारा स्वीकृत एक पर्याय शब्द के एक अर्थ में भी जो दृष्टि क्रिया काल तक ही अर्थ तत्त्व को स्वीकार करती है, और क्रिया शुन्यकाल में नहीं, उसको एवंभूत नय कहा जाता है। इस प्रकार का चारों नयों का स्वरूप है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने छह नय स्वीकार किए हैं-संग्रह, व्यवहार, ऋजुत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नैगम नय को स्वीकार नहीं किया । वह स्वतन्त्र नय नहीं है ।
न्यायावतार-सत्र में नय महावादी आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन परम्परा में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के महान् ताकिक, नैयायिक और दार्शनिक थे। उन्होंने अनेक गौरव ग्रन्थों की चारू रचना की । दो ग्रन्थ रत्न अत्यन्त प्रसिद्ध हैं-सन्मति सुत्र और न्यायावतार सूत्र । प्रथम में दार्शनिक तत्वों की गहन-गम्भीर विचारणा है, और द्वितीय में न्याय-शास्त्र के प्रमेयों पर संक्षेप में विचार किया गया है । न्यायावतार में बत्तीस कारिकाएँ हैं, जिनमें प्रमाण और नय पर मीमांसा की है । यह ग्रन्थ जैन न्याय के ग्रन्थों में मुकुटमणि माना जाता है । जैन न्याय का आदिम तथा प्रथम ग्रन्थ है-न्यायावतार ।
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