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१०२ / जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है। इसके तीन काण्ड हैं ! प्रथम काण्ड में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का विशिष्ट शैली में विशिष्ट वर्णन किया है । अनेकान्तवाद का आधार है, नयवाद । स्याद्वाद का आधार है, सप्त भंगवाद । ये दोनों ही जैन दर्शन के आधारभूत तत्व हैं, जिस पर अनेकान्तवाद का भव्य प्रासाद खड़ा है। आचार्य ने सन्मति सूत्र ग्रन्थ के प्रथम काण्ड में नयवाद की विस्तार से परिचर्चा की है। अन्य दर्शनों का नयों में समावेश कर लिया है । अतः प्रथम काण्ड में नयवाद की बड़ी गम्भीर विचारणा की है। प्रथम काण्ड का नाम ही नयकाण्ड रखा है। द्वितीय काण्ड में ज्ञान और दर्शन की गहन गम्भीर मीमांसा की है, जो इसके पूर्व रचित ग्रन्थों में अनुपलब्ध है। द्वितीय काण्ड में ज्ञान एवं दर्शन के सम्बन्ध में, तीन पक्ष हैं- क्रमवाद, युगपत्वाद और अभेदवाद अर्थात् एकत्ववाद । तृतीय काण्ड में, सामान्य और विशेष की लम्बी चर्चा की है । इस प्रसंग पर अन्य दर्शनों की भी विचारणा की है। नयों के मूल भेद
आचार्य ने नय का लक्षण न करके सीधे नयों के भेद का निरूपण कर दिया है । सम्भवतः उन्होंने सोचा हो, कि मेरे पाठक प्रबुद्ध हैं । वस्तुतः यह ग्रन्थ है भी प्रबुद्ध पाठकों के लिए ही, सामान्य पाठक का इसमें प्रवेश नहीं है।
___ आचार्य का कहना है कि अनेक नय हैं, लेकिन उनका समावेश दो नयों में हो जाता है। वे मुख्य दो नय इस प्रकार हैं-द्रव्यास्तिक नय और पर्यायास्तिक नय । इन दोनों के नामान्तर हैं-द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय । इन्हीं को सामान्य भाषा में, अभेदगामी दृष्टि और भेदगामी दृष्टि भी कहा जा सकता है । आचार्य ने दोनों के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है-संग्रह प्रस्तार और विशेष प्रस्तार । इन दो नयों के कथन से अन्य सभी का कथन समझ लेना चाहिए। नयों के उत्तर भेद
द्रव्यास्तिक नय के दो भेद हैं-- संग्रह और व्यवहार । सत्ता रूप तत्व को अखण्ड रूप में ग्रहण करने वाली दृष्टि, संग्रह नय कहा जाता है । यही शुद्ध द्रव्यास्तिक नय है। सत्ता को जीव और अजीव रूप में खण्डित करके व्यवहार करने वाली दृष्टि व्यवहार नय है । अतः संग्रह और व्यवहार, इन दोनों को द्रव्यास्तिक नय के अनुक्रम से शुद्ध अपरिमित और अशुद्ध परि
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