Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

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Page 109
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन और उपस्थान तथा आराम और विराम आदि शब्दों में एक ही धातु होने पर भी उपवर्ग के भेद से अर्थभेद स्पाट दृष्टिगोचर होता है। यह शब्द नय का स्वरूप है। ६. समाभिरूढ़ नय-जो विचार शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर, अर्थभेद की कल्पना करता है, वह समभिरूढ़ नय होता है । जब मनुष्य की बुद्धि व्युत्पत्ति भेद का आश्रय ग्रहण करती है, तब वह एकार्थक शब्दों का भी व्युत्पत्ति के अनुरूप भिन्न-भिन्न अर्थ करती है। जैसे कि राजा, नपति और भूपति आदि एकार्थक शब्द हैं। लेकिन व्युत्पत्ति के अनुसार राजचिन्हों से शोभित राजा, मनुष्यों का रक्षण करने वाला नप और पृथ्वी का पालन करने वाला भूपति होता है। यहाँ व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद है। अतएव समभिरूढ़ नय व्युत्पत्ति को प्रधानता देता है। ७. एवंभूत नय-जो विचार शब्द से फलित होने वाले अर्थ के घटने पर ही उस वस्तु को उस रूप में, मानता है, अन्यथा नहीं, वह एवंभत नय होता है। एवंभूत नय का कथन है, कि जव व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ घटित होता हो, तभी उस शब्द का वह अर्थ स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा एवं अन्यदा नहीं । इसके अनुसार, छत्र एवं चामर से शोभित ही राजा हो सकता है । रक्षण क्रिया में रत ही नृप हो सकता है। भू का पालन करते समय ही भूपति हो सकता है। अभिप्राय यह है, कि राजा शब्द का प्रयोग तभी ठीक होगा, जब व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ घटित हो रहा हो । इन चारों नयों का मूल पर्यायार्थिक नय कहा गया है। तत्वार्थ सूत्र के भाष्यानुसार नैगम नय के दो भेद होते हैं-देश परिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी देश परिक्षेपी का अर्थ है-अंशग्राही अथवा विशेष ग्राही। सर्वपरिक्षेपी का अर्थ है-सर्वग्राही अथवा सामान्य ग्राही । क्योंकि नैगम नय दोनों को ग्रहण करता है, सामान्य को भी और विशेष को भी। द्रव्य को भी और पर्याय को भी । अतः वह उभयग्राही होने से देशपरिक्षेपी तथा सर्वपरिक्षेपी कहा जाता है । यह सर्व विषयी नय है। नय देशना का प्रयोजन नय-निरूपण का अर्थ है, विचारों का वर्गीकरण । नयवाद का अर्थ है, विचारों की मीमांसा । अतः नयवाद की परिभाषा इस प्रकार है-परस्पर विरुद्ध विचारों के वास्तविक अविरोध के बीज की गवेषणा करके विचारों का समन्वय करने वाला शास्त्र । जैसे कि दर्शन-शास्त्र में आत्मा के सम्बन्ध में परस्पर विरुद्ध विचार हैं-नित्यत्व और अनित्यत्व तथा For Private and Personal Use Only

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