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नय - निरूपणा | १०७
अनागत वक्र हैं, वर्तमान ऋजु अर्थात् सरल है, उसकी सूचना करने वाला ऋजुसूत्र !
५. शब्द नय -- शब्दयति, इति शब्दः । जो विचार शब्द के अनुसार पर्यायवाचक शब्दों का एक ही अर्थ करता है, वह शब्द नय है । जिस अभिप्राय से अर्थ बुलाया जाता है, यह शब्द की निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति मानी जाती है । शब्दयते आहूयते अनेन अभिप्रायेण, अर्थः इति
निरुक्तात् ।
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६. समभिरूढ़ नथ - समभिरुदयति, इति समभिरूढः । सम् का अर्थ है - एकीभावपूर्वक । एकीभावपूर्वक जो अभिप्राय शब्द की प्रवृत्ति में व्युत्पत्ति का निमित्त होता है, वह समभिरूढ़ नय है । संज्ञा भेद से भी अर्थ भेद हो जाता है ।
७. एवंभूत नय - एवं शब्द का अर्थ होता है, प्रकार | एवं अर्थात् जैसा व्युत्पादित है, उस प्रकार को भूतः अर्थात् प्राप्त जो शब्द वह एवंभूत नय है । वर्तमान किया विशिष्ट अर्थ को ग्रहण करने वाला विचार । प्रमाण-नय-तत्त्वालोक में नय
प्रमाण - नय तत्त्वालोक एक सूत्रात्मक ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ रत्न न्याय शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । आचार्य देवसूरि एवं वादिदेव सूरि की अमर कृति है । अष्ट परिच्छेदों में विभक्त है । इसका विषय है- प्रमाण, नय और वाद । मूल सूत्रों की संख्या ३७७ है । आचार्य वादिदेव या देवसूरि न स्वयं सूत्रों पर विशाल भाष्य लिखा है, जिसका नाम स्याद्वाद रत्नाकर है, और जिसका श्लोक परिमाण ८४ हजार है। जैन, बौद्ध और वैदिक न्याय तथा दर्शन का गहन अध्ययन, इस एक ही विशाल ग्रन्थ से समग्र रूप में सम्पन्न हो जाता है, एक भी विषय शेष नहीं रह पाता । एक ही ग्रन्थ से भारत के समग्र दर्शन को समझना हो, तो यही एकमात्र ग्रन्थ है । आचार्य के शिष्य रत्नसिंह सूरि ने संक्षिप्त - रुचि लोगों के लिए सूत्रों पर रत्नाकरावतारिका ग्रन्थ की चारु रचना की है । अद्भुत ग्रन्थ हैं, दोनों ही ।
मूल सूत्रों की भाषा मधुर, रुचिर और सुन्दर है । न्याय जैसे कर्कश विषय को मधुर भाषा ने मधुर काव्य का रूप प्रदान किया है । भाष्य और टीका की भाषा, शैली तथा भाव अत्यन्त रुचिकर हैं । जैन न्याय का यह सर्वाधिक सुन्दर ग्रन्थ है । परीक्षामुख अधूरा है, क्योंकि उस में नय और वाद का विषय नहीं है । मीमांसा ग्रन्थ अर्थात् आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत प्रमाण - मीमांसा अपूर्ण उपलब्ध है ।
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