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१०६ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
धर्म हैं। लेकिन प्राचीन आचार्यों ने नयों के सात भेद ही मुख्य रूप में माने हैं ।
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एक-एक नय का लक्षण
ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहा गया है । यह नय का सामान्य लक्षण है, जो समस्त नयों में घटित होता है । अभिप्राय दूसरे को दो प्रकार से प्रकट किया जा सकता है- अर्थ द्वारा अथवा शब्द द्वारा । अर्थ दो प्रकार का होता है- सामान्य रूप तथा विशेष रूप । शब्द भी रुढ़ि अथवा व्युत्पत्ति से प्रवर्तित होता है । टीकाकार के अनुसार नय की प्राचीन आचार्यों ने यही व्याख्या की I
परस्पर में विशकलित, सामान्य और विशेष को ग्रहण करने वाला विचार नैगम नय है । केवल सामान्य को ग्रहण करने वाला विचार संग्रह नय है | लोक व्यवहार के अनुसार विशेष को ग्रहण करने वाला विचार व्यवहार नय है । पदार्थ की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला विचार ऋजु सूत्र नय है । रूढ़ि से शब्दों की प्रवृत्ति को ग्रहण करने वाला विचार शब्दय है । व्युत्पत्ति से शब्दों की प्रवृत्ति को ग्रहण करने वाला विचार समभिरूढ़ नय है । वर्तमानकालीन व्युत्पत्ति को निमित्त करके शब्दों की प्रवृत्ति को ग्रहण करने वाला विचार एवंभूत नय है ।
नैगम नय में, न्याय-वैशेषिक मत का समावेश हो जाता है । संग्रह नय में वेदान्त और सांख्य का समावेश होता है । व्यवहार नय में चावकि मत का समावेश होता है ! ऋजुसूत्र नय में बौद्ध मत का अन्तर्भाव होता है । शब्द नयों में वैयाकरण और मीमांसक मतों का अन्तर्भाव हो जाता है ।
नयों का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
१. नैगम नय - गम का अर्थ है. जानना । नि का अर्थ है, निश्चित रूप से जानना । 'निगम्यन्ते निश्चित रूपेण ज्ञायन्ते अर्थाः, इति निगमाः । निगम में होने वाला जो अभिप्राय, वह नैगम होता है ।
२. संग्रह नय - संगृहाति, इति संग्रहः । जो संग्रह करता है, वह संग्रह है।
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३. व्यवहार नय - व्यवहरति इति व्यवहारः जो लोक रूढ़ि के अनुसार व्यवहार करने वाला, व्यवहार ।
४. ऋजुसूत्र नय -- ऋजूं सूत्रयति सरलं सूचयति । अतीत तथा
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