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१०४ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
न्यायावतारकार दिवाकर आचार्य सिद्धसेन, जैन परम्परा के अनुसार, विक्रम की प्रथम शती के परम प्रभावक आचार्य थे । इतिहासकारों के अनुसार चतुर्थ शती के चरम चरण के विद्वान् थे । कुछ विचारकों के अनुसार पञ्चम शती के प्रथम चरण में उनका समय माना गया है । बौद्ध नैयायिक दिन का और सिद्धसेन का समय एक ही था। दोनों ही नैयायिक थे। दोनों ने अपनी-अपनी परम्परा के न्याय - शास्त्र की रचना की । दिङ्नाग का न्याय प्रवेश और सिद्धसेन का न्यायावतार, दोनों युगान्तरकारी ग्रन्थ- रत्न है । दिङ्नाग बौद्ध न्याय के पिता थे, तो सिद्धसेव जैन न्याय के जनक माने जाते हैं । नय विचार
न्यायावतार का मुख्य विषय है, प्रमाण मीमांसा । उसकी बत्तीस कारिकाओं में से अट्ठाईस कारिकाओं में प्रमाण पर विचार किया है । उन्तीसवीं तथा तीसवीं, दो कारिकाओं में नय पर विचार किया है । यहाँ पर न तो नय का लक्षण किया है, और न उसके भेद बताये हैं । नय के विषय में केवल दो बात कही हैं
१. अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण का विषय होती है । अनेक धर्मात्मक वस्तु में से किसी एक अंश का, एक धर्म का ज्ञान, नय कहा जाता है । एकदेश विशिष्ट अर्थ नय का विषय होता है ।
२. एक निष्ठ अर्थात् एक-एक धर्म को ग्रहण करने वाला नय होता है । समग्र अर्थ को ग्रहण करने वाला स्याद्वाद त होता है ।
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श्रत के मुख्य दो भेद हैं-वस्तु के एक अंश का स्पर्श करने वाला, अंशग्राही होता है, और वस्तु को समग्र भाव से ग्रहण करने वाला, समग्र होता है । अंशग्राही नय श्रुत है, और समग्रग्राही स्याद्वाद श्रुत है । जैसे कि समग्र चिकित्सा - शास्त्र यह आरोग्य तत्त्व का स्याद्वाद त है, परन्तु आरोग्य तत्व से सम्बद्ध - आदान, निदान और फिर चिकित्सा आदि भिन्नभिन्न अंशों पर विचार करने वाले अंश, ये चिकित्सा शास्त्र रूप स्याद्वाद के अश मात्र होने से नय त कहे जाते हैं । यहाँ पर प्रमाण और नय का पृथककरण किया गया है ।
सिद्धषिगणि
न्यायावतार सूत्र के टीकाकार सिद्धर्षि गणि हैं। टीकाकार ने अपनी टीका रचने का प्रयोजन धारणा की प्रवृद्धि बताया है। चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर को नमस्कार करने का कारण बताया है, कि उन्होंने
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