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नय-निरूपणा | १०५
अपनी दार्शनिक दृष्टि से सामान्य और विशेष की भिन्नता तथा अभिन्नता के सम्बन्ध में, वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन कराया है और अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादन किया है, कि सामान्य और विशेष, दोनों परस्पर में कथंचित् भिन्न हैं, और वथंचित् अभिन्न हैं। एकान्त भिन्न और एकान्त अभिन्न नहीं हैं। न्यायावतार का अर्थ
टीकाकार ने न्यायावतार का अर्थ किया है, कि नि पूर्वक इण् धातु से नि । आय, न्याय शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है-प्रमाण एवं नय मार्ग । अवतार शब्द का अर्थ होता है-तीर्थ अर्थात् घाट । व्युत्पत्ति "अवतार यति, इति अवतार:' के अनुसार अर्थ होता है- जिसके द्वारा मनुष्य अवतरित होते हैं, वह अवतार कहा जाता है। न्यायस्य अवतारः" का अर्थ होता है-- न्याय का अर्थात् प्रमाणनय का मार्ग अर्थात् घाट । जैसे घाट के द्वारा गम्भीर एवं विशाल नदी को पार करना सरल होता है, वैसे ही इस न्यायावतार ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा अध्येता गहन गम्भीर न्याय शास्त्र रूप विशाल सागर को सुगमता तथा सरलता से पार कर सकता है । नय का लक्षण तथा भेद
टीकाकार सिद्धर्षि गणि ने अपनी टीका में नय का लक्षण भी दिया है, और नय के भेद भी किए हैं। नय के सात भेदों का कथन किया है । नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजू सूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । टीकाकार पुरातन परम्परा का अनुगामी है, उसे सिद्धसेन दिवाकर द्वारा संस्थापित पड़ भेद वाली परम्परा स्वीकार नहीं है। टीकाकार नैगम को नय मानता है । जैन परम्परा में, अन्य भी किसी आचार्य ने सिद्धसेन दिवाकर का अनुकरण नहीं किया है। महान् श्रु तधर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का दिगम्बर परम्परा के आचार्य भी बहुमान एवं सम्मान करते रहे हैं । लेकिन उनके द्वारा संस्थापित षड् भेद वाली नय स्थापना को उन्होंने भी मान्यता नहीं दी।
टीकाकार ने नय का लक्षण इस प्रकार से किया है-प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से यथावस्थित वस्तु स्वरूप के ग्रहण के अनन्तर "यह नित्य और यह अनित्य है'' आदि अपने आशय से वस्तु के एक अंश का परामर्श नय होता है । प्रमाण द्वारा ज्ञात अर्थ का एकदेश जानना, वह नय है। यह लक्षण जितने नय विशेष हैं, उन सबमें जाता है, और वह पर-रूपों के हटाने में भी समर्थ है। इनकी संख्या अनन्त है, क्योंकि वस्तु में अनन्त
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