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८२ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशोलन
४. अनुमान-साधन से साध्य का ज्ञान होना, अनुमान है । साधन का अर्थ है-हेतु या लिंग । साधन को देखकर तद् अविनाभावि साध्य का ज्ञान करना अनुमान होता है । धम, जो कि अग्नि का साधन है, उसे देखकर अग्नि, जो कि साध्य है, उसका ज्ञान अनुमान है। साधन और साध्य के मध्य अविनाभाव सम्बन्ध होना, परम आवश्यक है। अविनाभाव का अर्थ है--किसी के बिना न होना.। धूम, अग्नि के बिना नहीं हो सकता। धूम के होने पर अग्नि का होना, यह अविनाभाव सम्बन्ध होता है । अनुमान दो प्रकार का है-स्वार्थानुमान और दूसरा परार्थानुमान, कहा गया है।
५. आगम-आप्त-पुरुष के वचन से आविर्भूत होने वाला, अर्थसंवेदन, आगम कहा जाता है। आप्त पुरुष का अर्थ है-तत्त्व को यथावस्थित जानने वाला और तत्व का यथावस्थित कथन करने वाला। रागद्वप से शुन्य पुरुष ही आप्त हो सकता है। क्योंकि वह मिथ्यावादी नहीं हो सकता । आप्त पुरुष की वाणी से होने वाला ज्ञान, आगम कहा जाता है। उपचार से आप्त के वचनों का संग्रह भी आगम है। लौकिक और लोकोत्तर के भेद से आप्त दो प्रकार के होते हैं-साधारण व्यक्ति लौकिक आप्त हो सकते हैं । लोकोत्तर आप्त पुरुष तो एकमात्र तीर्थकर देव ही हो सकते हैं।
जैन दार्शनिक ग्रन्थों की रचना का काल तत्त्वार्थ सत्र से प्रारम्भ होता है । इसमें प्रमेय की प्रधानता है, प्रमाण की गौणता। आगे चलकर न्याय प्रधान ग्रन्थों में, प्रमाण की मूख्यता हो चुकी थी। न्यायावतार, न्यायविनिश्चय, परीक्षा-मुख, प्रमाणनयतत्त्वालोक, प्रमाण-मीमांसा, न्यायदीपिका और जैन तर्क-भाषा जैसे तर्कप्रधान ग्रन्थों की एक दीर्घ परम्परा चल पड़ी, जिनमें प्रमेय की गौणता और प्रमाण की मुख्यता रही। फिर व्याख्या ग्रंथों की रचना होने लगी। रत्नाकरावतारिका, स्याद्वाद रत्नाकर, प्रमेयकमल-मार्तण्ड और न्यायावतार-वातिक-वृत्ति तथा शास्त्र वार्ता समुच्चय जैसे विशालकाय ग्रन्थों की रचना होने लगी। यही प्रमाण-युग कहा जाता है।
तर्क युग में नयाभासों का कथन जब नय अपने विषय को ग्रहण करके दूसरे नय के विषय का निषेध करता है, तब वह नय न रहकर नयाभास हो जाता है। सम्यक् नय न रहकर, मिथ्या नय हो जाता है, सुनय न रहकर, दुर्नय कहा जाता है ।
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