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नय-निरूपणा | ६१ है, कि भिन्न काल वाचक, भिन्न कारकों में निष्पन्न, भिन्न वचन वाले, भिन्न पर्याय वाचक और भिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थ को नहीं कह सकते। जहाँ शब्द भेद होता है, वहाँ अर्थभेद भी होता है।
तत्त्व परिबोध के उपाय मूल आगमों में, और उनके व्याख्या ग्रन्थ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं में, तत्त्व-परिबोध के दो उपाय परिकथित हैं-प्रमाण और नय । इन दोनों के बिना तत्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। आचार्य उमास्वाति ने भी अपने सूत्र ग्रन्थ तत्वार्थाधिगममें,तत्वों का अधिगम अर्थात् यथार्थ ज्ञान के लिए प्रमाण और नय को स्वीकार किया है। कहा है, कि प्रमाण और नय से जीव एवं अजीव आदि का अधिगम होता है, तत्वों का परिवोध होता है । प्रमाण क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया कि सम्यग् ज्ञान ही प्रमाण है । नय क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया, कि प्रमाण द्वारा परिगृहीत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाला विचार नय है । ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय कहा गया है । आगम की भाषा में, सम्यक्त्व सहचरित ज्ञान को सम्यगज्ञान कहा जाता है। मिथ्यात्व सहचरित ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा जाता है। मिथ्याज्ञान कभी प्रमाण नहीं हो सकता । क्योंकि उसमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होते हैं, जिनके कारण वस्तु का निर्णय नहीं हो पाता । नय भी दो प्रकार के होते हैं-सनय और दुर्नय । जो नय अपने विषय को ग्रहण करता परन्तु दूसरे धर्मों का निषेध नहीं करता है, वह सुनय है। जो नय अपने विषय को ग्रहण करके दूसरे धर्मों का निषेध करता है, विरोध करता है, वह दुर्नय है। ज्ञान और प्रमाण
आगमों में और उनके व्याख्या ग्रन्थों में, ज्ञान का वर्णन दो प्रकार से उपलब्ध होता है-ज्ञान रूप में और प्रमाण रूप में । ज्ञान के सोधे पाँच भेद हैं--मति, श्रत, अवधि, मनःपर्याय और केवल । इनके अवान्तर भेदप्रभेद मिलाने पर ज्ञान के ३४० भेद हो जाते हैं । तत्वार्थ सूत्र में और कर्म ग्रन्थों में ये भेद उपलब्ध हैं। परन्तु न्याय-शास्त्र के युग में आचार्यों ने ज्ञान का विभाजन प्रमाण रूप में, आवश्यक समझा । अतः नन्दीसूत्र में पञ्चविध ज्ञान को दो प्रमाणों में विभक्त किया गया--प्रत्यक्ष और परोक्ष । तत्त्वार्थ सूत्र में भी पहले पञ्चविध ज्ञान का कथन किया गया, और बाद में दो प्रमाणों में उसे विभक्त किया गया-प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
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