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६ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
बौद्ध दर्शन में भी दो दृष्टि हैं - परमार्थ दृष्टि और संवृत- दृष्टि । बौद्ध दर्शन का शून्यवाद और विज्ञानवाद - इन दोनों के आधार पर ही जगत् व्याख्या प्रस्तुत करता है ।
जैन दर्शन में, जिन दो नयों का प्रतिपादन किया गया है, उन्हीं का रूपान्तर दृष्टियों में स्पष्ट प्रतीत हो रहा है । निश्चय नय और व्यवहार नय में, दोनों का समावेश सुगमता से किया जा सकता है । सांख्य दर्शन की विवेक ख्याति का भी नयों में अन्तर्भाव किया जा सकता है । न्यायवैशेषिक दर्शन के सामान्य और विशेषों का आधार भी भेद दृष्टि और अभेद - दृष्टि ही हैं । अतएव अन्य दर्शनों में नय शब्द का प्रयोग न करके उक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
अनुयोगद्वारसूत्र में नय
अनुयोग शब्द आगमों का विशिष्ट शब्द है जिसका अर्थ होता है, व्याख्यान अथवा विवेचन । इस सूत्र में आवश्यक सूत्र का व्याख्यान विस्तार से किया गया है । इसमें ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप का भी विवेचन किया गया है । भाव प्रमाण के द्वितीय भेद नय प्रमाण का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने प्रस्थक, वसति एवं प्रदेश के दृष्टान्त से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत - इन सात नयों का स्वरूप स्पष्ट किया है । नय नामक चतुर्थ अनुयोगद्वार में नंगम आदि सात नयोंका स्वरूप बताया गया है । स्थानांग सूत्र में भी नयों के सात भेद कहे गये हैं ।
१. नैगम नय - जो विचार लोकरूढ़ि के आधार पर कहा जाता है, अथवा जिसमें द्रव्य और पर्याय का अभेद मानकर कथन किया जाता है, वह नैगम नय है । जैसे किसी ने चावल साफ करने वाले से करते हो ? वह कहता है, कि भात पका रहा हूँ । यह नय ग्राही होता है ।
पूछा- क्या संकल्प मात्र
२. संग्रह नय - जो विचार सर्वग्राही हो, वह संग्रह नय होता है । जैसे कि जीव कहने से सर्व जीवों का ग्रहण हो जाता है - संसारी भी सिद्ध भी ।
३. व्यवहार नय - जो विचार भेद का ग्रहण करता है, वह व्यवहार नय होता है । जैसे जीव के दो भेद, तीन भेद, चार भेद और पाँच भेद आदि । बिना भेद के व्यवहार चल नहीं सकता ।
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