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९० | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
का यथार्थ ज्ञान । नय का अर्थ है - प्रमाण द्वारा परिज्ञात वस्तु के किसी एक धर्म का परिज्ञान । निक्षेप का अर्थ है-- अप्रकृत अर्थ का निराकरण करके प्रकृत अर्थ का विधान करना । निक्षेप, शब्द प्रयोग की एक सुन्दर प्रक्रिया है ।
नयों का स्वरूप, लक्षण और परिभाषा समझने से पूर्व नयों के भेदों को समझना आवश्यक होगा । आगमों में नयों के सात भेद हैं । आगमोत्तर साहित्य में एकरूपता नहीं रही तत्त्वार्थ सूत्र मूल में नयों के सात भेद हैं । पांच भेद भी हैं - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द | शब्द के तोन भेद हैं- साम्प्रत, समभिरूढ़ एवंभूत |
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के स्वरचित सन्मति सूत्र में नयों के छह भेद हैं- संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत । नयों के मूल में दो भेद भी हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । इस प्रकार नयों के भेद के विषय में एकमत नहीं है । सामान्य रूप में नयों के सात भेद ही प्रसिद्ध हैं । वे सात भेद इस प्रकार हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को स्वीकार नहीं करते । अतः उन्हें षड्नयवादी कहा जाता है । अन्य किसी ने नयों के छह भेद नहीं किए हैं ।
विचार और व्यवहार
सामान्यतया व्यवहार के आधार तीन हैं - ज्ञान, शब्द और अर्थ | किसी भी वस्तु पर विचार करना ज्ञान है । जिस व्यक्ति का जितना ज्ञान होगा, वह उतना ही उस वस्तु के स्वरूप को समझ सकेगा । व्यवहार का ज्ञानाश्रयी पक्ष वस्तु का प्रतिपादन विचार प्रधान दृष्टि से करता है ।
व्यवहार का अर्थाश्रयी पक्ष मुख्यतया अर्थ का विचार करता है । अर्थ में जहाँ एक ओर एक, नित्य और व्यापी चरम अभेद की कल्पना की जाती है, तो वहां दूसरी ओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्व की दृष्टि से चरम भेद की कल्पना भी की जाती है । तीसरी कल्पना, इन दोनों चरम कोटियों के मध्य की है । सर्वथा ही अभेद स्वीकार करने वाले अद्वैत वादी हैं | सूक्ष्मतम वर्तमान क्षणिक अर्थ - पर्याय पर दृष्टि रखने वाले क्षणिकवादी बौद्ध हैं। तीसरी कोटि में पदार्थ को नाना रूप से व्यवहार मै लाने वाले न्याय-वैशेषिक हैं, जो सामान्य विशेष उभयवादी हैं ।
व्यवहार का शब्दाश्रयी पक्ष, भाषा शास्त्री है, जो अर्थ की ओर ध्यान न देकर केवल शब्द की ओर ही अधिक ध्यान देते हैं। उनका कथन
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