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नय निरूपणा | ६३
विशेष धर्मों को ग्रहण करता है, वह व्यवहार नय होता है । जैसे सत् के दो भेद करना, जीव और अजीव ।
४. ऋजुसूत्र नय - जो विचार द्रव्य को ग्रहण न करके उसकी वर्तमान क्षणिक पर्याय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्र नय है । जैसे कि बौद्धदर्शन में कहा गया है, कि यत् सत् तत् क्षणिक | जैन दर्शन के अनुसार पर्याय क्षणिक ही होता है ।
५. शब्द नय - जो विचार शब्द को और उसके अर्थ को ग्रहण करता है, वह शब्द नय होता है । यहाँ प्रधानता शब्द को है । यह नय शब्द के भेद से अर्थ का भेद मानता है । एकार्थवाचक शब्द भी लिंग, वचन तथा कारक भेद से अर्थ का भेद स्वीकार करते हैं। जैसे कि तटः, तटी, तटम् | लिंग भेद के कारण अर्थ भेद है ।
६. समभिरूढ नय -- जो विचार व्युत्पत्ति के भेद से अर्थभेद करता है, वह समभिरूढ नय है । जैसे इन्द्र और पुरन्दर, दोनों शब्दों का वाच्य अर्थ एक होने पर भी व्युत्पत्ति के भेद से अर्थ भेद हो जाता है । इन्दनात् इन्द्र तथा पुरं दारयति, इति पुरन्दरः । अतः इन्द्र एवं पुरन्दर का अर्थ भिन्न है ।
७. एवंभूत नय - जो विचार वर्तमान क्रिया परिणत अर्थ को ग्रहण करता है, वह एवंभूत नय है । जैसे कि जब सिंहासन पर बैठा हो, तभी उसको राजा माना जा सकता है । अन्यथा, स्थिति में उसको राजा नहीं कहा जा सकता ।
एक बात यह भी ध्यान में रखने की है, कि ऊपर से नीचे की ओर आने से पूर्व नय से उत्तर नय सूक्ष्म होता जाता है । नीचे से ऊपर की ओर चढ़ने से उत्तर नय की अपेक्षा पूर्व नय का विषय, विशाल होता जाता है । जैसे एवंभूत की अपेक्षा, नैगम का विषय बहुत ही विशाल होता है । उसकी परिधि भी बढ़ती चली जाती है । यहाँ पर केवल नयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है ।
दूसरे, इस बात का भी ध्यान रखना है, कि नयों का विभाजन अथवा वर्गीकरण अनेक प्रकार का है । नयों की संख्या के विषय में भी एकमत नहीं है । दो, पाँच, छह एवं सात तथा नयों के भेद संख्यात - असंख्यात भी हो सकते हैं । जितने वचन-प्रकार, उतने ही नय प्रकार होते हैं ।
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