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६२ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
प्रमाण और नय
आगमों में, स्थानांग सूत्र में तथा अनुयोगद्वार-सूत्र में सप्त नयों का उल्लेख है। अनुयोग द्वार का वर्णन विस्तृत है, जबकि स्थानांग में सप्त नयों का उल्लेख है, उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन नहीं किया गया। विशेषावश्यक भाष्य में, ज्ञान, नय और निक्षेपों का अति विस्तार से वर्णन उपलब्ध है । तत्वार्थ सूत्र में नयों के सात भेद नहीं, केवल पाँच भेद हैंनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र और शब्द । शब्द के तीन भेद किए गए हैं-साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभुत । फिर और भी संक्षेप हुआ, तो नय के केवल दो भेद रहे - द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय ।
नयों का सामान्य परिचय भारतीय दर्शनों में, नय विचार जैन दर्शन की अपनी एक विशेषता है, जो अन्य दर्शनों में नहीं है । यदि है, तो वह एकान्तरूप है, अनेकान्त रूप नहीं । सामान्यतया नय की सुगम एवं सुबोध परिभाषा यही है, कि पदार्थ के समग्र धर्मों एवं गुणों की ओर ध्यान न देकर, वस्तु के किसी एक विशिष्ट दृष्टिकोण से विषय का निरूपण करना। इसी को जैनदर्शन में नय विचार कहा गया है।
नय के मूल में दो भेद हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । प्रथम का विषय द्रव्य है, और द्वितीय का विषय पर्याय है। द्रव्याथिक नय के तीन भेद हैं- नैगम, संग्रह और व्यवहार । पर्यायाथिक नय के चार भेद हैंऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नयों का यह एक सामान्य परिचय है । दूसरी एक पद्धति यह भी है कि नयों के सीधे सात भेद होते हैंजैसे कि नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत ।
नयों की परिभाषा १. नैगमनय-संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला विचार है । जैसे एक व्यक्ति बन की ओर जा रहा है । दूसरा पूछता है, कहाँ जा रहे हो ? वह उत्तर देता है, हल लेने जा रहा हूँ। वस्तुतः वह हल के लिए काष्ठ लेने जा रहा है । लेकिन संकल्प है, हल का।
२. संग्रह नय-जो विचार वस्तु के विशेष धर्मों को गोण कर, सामान्य को ग्रहण करता है, वह संग्रह नय होता है। जैसे कि गत् कहने भर से जीव और अजीव, सबका ग्रहण हो जाता है।
३. व्यवहार नय-जो विचार वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके
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