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८० ! जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
विभाजन अपूर्ण है । चार्वाक केवल एक प्रत्यक्ष को हो प्रमाण स्वीकार करता है ।
वैशेषिक और सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम अथवा शब्द । नैयायिक चार प्रमाण स्वीकार करते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । आचार्य सिद्धसेन ने भी तीन प्रमाण माने हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । अनुयोगद्वार सूत्र में भी चार प्रमाण की मान्यता रही है - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ।
मीमांसा दर्शन की एक शाखा के आचार्य प्राभाकर पाँच प्रमाण मानते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति। मीमांसा दर्शन की द्वितीय शाखा के आचार्य भाट्ट छह प्रमाण मानते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव । प्रमाण की संख्या सबकी भिन्न भिन्न रही है । सबकी मान्यता अलग-अलग है ।
जैन न्याय के आचार्यों ने दो ही प्रमाण स्वीकार किए हैं। प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष | जैनदर्शनसम्मत दो प्रमाणों में ये सब प्रमाण समा जाते हैं । जैन परम्परा के आचार्यों ने प्रत्यक्ष के दो भेद माने हैं । परोक्ष के पाँच भेद माने हैं ।
भारतीय दर्शनों में प्रमाण के स्वरूप और प्रमाण की संख्या के विषय पर बहुत ही मतभेद रहे हैं । लेकिन प्रमाण को सभी ने स्वीकार किया है, और उसकी व्याख्या की है ।
प्रत्यक्ष और परोक्ष
जैन न्याय के आचार्यों ने प्रमाण के दो भेद किए हैं। दो भेदों में अन्य सभी प्रमाणों का समावेश कर लिया गया है। इनकी व्याख्या उन्होंने विस्तृत अर्थ में की है । पांच ज्ञानों का समावेश भी दो भेदों में कर लिया । प्रत्यक्ष शब्द में जो अक्ष पद है, उसके दो अर्थ हैं-अक्ष अर्थात् जीव एवं आत्मा, और अक्ष अर्थात् इन्द्रियाँ एवं मन । इस आधार पर उन्होंने प्रत्यक्ष के दो भेद कर लिए हैं - सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान, और इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं, और परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं ।
प्रत्यक्ष प्रमाण
जैन ताकिकों ने प्रत्यक्ष का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया- एक लोकोत्तर अथवा पारमार्थिक दृष्टि है, और दूसरी लौकिक अथवा व्यावहारिक दृष्टि है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-सकल एवं विकल ।
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