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वस्तु का लक्षण | ८५
भाष्य, चूणि और टीका अनुटीका ग्रन्थ । इस युग की परिसमाप्ति, वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र पर हो जाती है ।
२. अनेकान्त युग-इसमें अनेकान्तवाद पर, होने वाले आक्षेपों का निराकरण करके, अनेकान्त की विशद व्याख्या की जाने लगी। विरोध का प्रबल खण्डन किया गया। अपने पक्ष की परीक्षा करके अनेकान्तवाद की स्थापना का सफल प्रयास किया गया । इस यूग के महान् मनीषी थेआचार्य सिद्धसेन दिवाकर, जिन्होंने सन्मति तर्क जैसे ग्रन्थ रत्न की रचना करके, उसमें, न्याय-वैशेषिक दर्शन के ईश्वरवाद एवं परमाणवाद की समीक्षा की। सांख्य-योग के प्रकृतिवाद एवं पुरुषवाद की समालोचना की। वेदान्त और मीमांसा दर्शन के ब्रह्मवाद, मायावाद तथा यज्ञ-होम कर्म की परीक्षा की। चार्वाक के भौतिकवाद का विरोध एवं निरोध किया । बौद्ध दर्शन के शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की विस्तृत समालोचना की। फिर अनेकान्तवाद की गहन गम्भीर व्याख्या करके, स्थापना की । सन्मति तर्क के तृतीय नय-काण्ड में अनेकान्तवाद का सर्वतोमुखी विकास किया। आचार्य ने अपने न्यायावतार गन्थ में, प्रमाण और नय की नयी व्याख्या की। उनके इस कार्य में, आचार्य समन्तभद्र ने भी अपनी कृति आप्तमीमांसा में, उनका अनुसरण करके, अनेकान्त की स्थापना में अपना पूरापूरा सहयोग प्रदान किया।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने प्रमाण और नय की तर्कमूलक जो नयी व्याख्या करके महान कार्य का प्रारम्भ किया था, उसे आगे बढ़ाया, वादिदेव सूरि ने, स्याद्वाद रत्नाकर की रचना करके । आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्रमाण-मीमांसा में, अधिक विशद व्याख्या की । आचार्य मल्लि षेण ने अपनी स्याद्वाद मञ्जरी में स्याद्वाद की सप्त भंगी के द्वारा विस्तृत रूप रखा। वाचक यशोविजय ने अपने अनेक ग्रन्थों में, अनेकान्त और स्याद्वाद की गम्भीर परिचर्चा की है। इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन के प्रारम्भ कार्य को उनके अनुगामी आचार्यों ने पूरे वेग से आगे बढ़ाया, और उसमें सफलता प्राप्त की।
३. प्रमाण-युग इस युग में प्रमेय का विवेचन गौण हो गया और प्रमाण की विवेचना प्रधान । न्यायावतार की रचना के बाद, वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक सूत्रात्मकग्रन्थ रचा, उस पर स्याद्वाद रत्नाकर, उनके शिष्य ने रत्नाकरावतारिका की रचना की। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण मीमांसा
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