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वस्तु का लक्षण | ७६
आचार्य हेमचन्द्र
आचार्य ने अपनी प्रमाण -मीमांसा में प्रमाण का लक्षण दिया है'सम्यग् अर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।' अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है । यहाँ पर स्व एवं पर को हटा दिया है । क्योंकि अर्थ का निर्णय स्वनिर्णय के अभाव में नहीं हो सकता । जब स्वनिर्णय होता है, तभी अर्थ निर्णय होता है । अतः आचार्य ने स्वनिर्णय विशेषण का प्रयोग नहीं किया ।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान और प्रमाण में अभेद है । ज्ञान का
अर्थ, सम्यग्ज्ञान है, न कि मिथ्याज्ञान । जैन दर्शन में ज्ञान को स्व-पर प्रकाशक माना गया है । निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है । निश्चयात्मक का अर्थ है - सविकल्पक | निश्चयात्मक, व्यवसायात्मक, निर्णयात्मक और सविकल्पक हो, वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है ।
" सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।" यह भी प्रमाण का लक्षण है । अन्य आचार्यों ने अन्य प्रकार से भी लक्षण किए हैं। लेकिन प्रमाण बनने के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है ।
प्रमाण का प्रमाणत्व
जैन तार्किक कहते हैं, कि प्रमाण के प्रमाणत्व का निश्चय कहीं पर स्वतः और कहीं पर परतः होता है । अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परत: होता है ।
मीमांसक स्वतः प्रामाण्यवादी हैं । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी हैं । सांख्यों की मान्यता है, कि प्रमाणत्व तथा अप्रमाणत्व दोनों स्वतः होते हैं ।
प्रमाण का फल
प्रमाण का मुख्य प्रयोजन अर्थ - प्रकाश है । प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान का नाश है । केवलज्ञान के लिए उसका सुख और उपेक्षा है । शेष ज्ञानों के लिए ग्रहण और त्याग बुद्धि है । सामान्य दृष्टि से प्रमाण का फल यही है, कि अज्ञान नहीं रहने पाता । जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार प्रमाण से अज्ञान का विनाश हो जाता है | प्रमाण के भेद
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जैन दर्शन मुख्य रूप से प्रमाण के दो भेद मानता है - प्रत्यक्ष और परोक्ष । बौद्ध भी प्रमाण के दो भेद करते हैं- प्रत्यक्ष और अनुमान । जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का भेद है । अतः बौद्ध दर्शन का प्रमाण