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७६ / जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
यह उनकी नई सूझ नहीं कही जा सकती । क्योंकि उसका मूल नन्दीसूत्र,
और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण में विद्यमान है। अनुयोगद्वार सूत्र
पीछे कहा जा चुका है, कि अनुयोगद्वार में, प्रमाण शब्द को उसके विस्तृत अर्थ में लेकर प्रमाणों का भेद वर्णन किया गया है। यहाँ पर अनुयोगद्वार सम्मत चार प्रमाणों का वर्णन है। उनमें से प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन इस प्रकार है
१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष २. नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष
इन्द्रिय प्रत्यक्ष में-श्रोत्र प्रत्यक्ष, नेत्र प्रत्यक्ष, घ्राण प्रत्यक्ष, रसना प्रत्यक्ष और त्वचा प्रत्यक्ष-इन पाँच प्रकार के प्रत्यक्षों का समावेश किया गया है।
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण में जैन शास्त्र में प्रसिद्ध तीन प्रत्यक्ष ज्ञानों का समावेश है-अवधि, मनःपर्याय और केवल । प्रमाण के भेद
__ अनुयोगद्वार सूत्र में, प्रमाण के सोधे चार भेद भी उपलब्ध होते हैं । जैसे कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ।
प्रमाण भेद के विषय में प्राचीनकाल में, अनेक परम्परा प्रसिद्ध रहो हैं। उनमें से चार और तीन भेदों का निर्देश आगम में भी मिलता है। नैयायिकों ने प्रमाण के चार भेद ही माने हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं आगम। तत्त्वार्थ सूत्र
वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में विस्तार के साथ पाँच ज्ञानों का वर्णन किया है । ज्ञानों को दो प्रमाणों में विभक्त किया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । मति और श्रुत-परोक्ष प्रमाण हैं । अवधि, मनःपर्याय एवं केवल प्रत्यक्ष हैं। प्रवचनसार
__ आचार्य कुन्दकुन्द ने उमास्वाति की भाँति प्राचीन आगमों की व्यवस्था के अनुसार ही ज्ञानों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष माना है। आचार्य का कथन है, कि दुसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि इन्द्रिय तो अनात्म रूप होने से पर.
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