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७४ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
द्वितीय भंग है । जब स्वरूप और पररूप उभय की अपेक्षा होती है, तब अस्ति-नास्ति कहते हैं । यह तीसरा भंग कहा जाता है ।
अस्ति और नास्ति को एक समय में नहीं कहा जा सकता। जब अस्ति कहते हैं, तब नास्ति भंग रह जाता है । जब नास्ति कहते हैं, तब अस्ति भंग रह जाता है। जब क्रम से अस्ति-नास्ति कहते हैं, तव अस्तिनास्ति, यह तीसरा भंग बन जाता है। परन्तु जब एक ही समय में अस्तिनास्ति कहते हैं, तब अवक्तव्य नाम का चतुर्थ भंग बनता है। इस प्रकार क्रम से स्वरूप की अपेक्षा "अस्ति-नास्ति' और युगपत् स्वरूप की अपेक्षा "अवक्तव्य" भंग होता है।
जब वस्तु स्वरूप की अपेक्षा अस्ति होने पर भी अवक्तव्य है, पर स्वरूप की अपेक्षा नास्ति होने पर भी अवक्तव्य है तथा क्रम से स्वरूप एवं पररूप की अपेक्षा अस्ति-नास्ति होने पर भी अवक्तव्य है, तब तीन भंग और बन जाते हैं -अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य । यह पाँचवाँ, छठा और सातवाँ भंग बन जाता है। यह सप्तभंगी है, इसको स्याद्वाद कहा जाता है।
नयवाद, अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद-ये चारों सिद्धान्त जैन दर्शन के आधारभूत हैं, प्राण तत्त्व हैं तथा विशेष सिद्धान्त हैं । इनका परिपूर्ण प्रबोध, प्रमाण के बिना नहीं हो सकता । अतः प्रमाणवाद को समझना आवश्यक है !
प्रमाणवाद जैन परम्परा में, पाँच ज्ञानों की चर्चा भगवान् महावीर से पूर्व भी थी। इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्र में है। भगवान महावीर ने अपने मुख से अतीत में होने वाले केशीकुमार श्रमण का वृत्तान्त राजप्रश्नीय में कहा है । केशीकुमार ने राजा प्रदेशी को कहा है कि हम श्रमण लोग पाँच प्रकार का ज्ञान मानते हैं जैसे कि मति, श्र त, अवधि, मनःपर्याय और केवल।
आगमों में, पाँच ज्ञानों के भेद-प्रभेदों का जो वर्णन है, कर्मशास्त्र में ज्ञानावरण के भेदों का जो वर्णन है, मार्गणा स्थानों में जो ज्ञान मार्गणा का वर्णन है, और ज्ञानप्रवाद पूर्व में जो वर्णन किया गया है, इन सबसे यही फलित होता है, कि पाँच ज्ञान की चर्चा भगवान महावीर से पूर्व की है। इस ज्ञान चर्चा के विकास-क्रम को आगम के आधार पर देखना हो, तो उसे तीन भूमिकाओं में समझना चाहिए।
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