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७२ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन
का परिहार करके, व्यस्त और समस्त, विधि और निषेध की कल्पना को जाती है, तब सात प्रकार के वाक्यों का प्रयोग होता है, जो स्यात्कार से युक्त होता है । उस सप्त प्रकार के वाक्य प्रयोग को सप्तभंगी कहा जाता है। भंग शब्द का अर्थ है-विकल्प । सात प्रकार के विकल्पों को सप्त भंग कहते हैं । सप्त प्रकार के भंगों का कथन इस प्रकार किया जाता है
१. स्यात् अस्ति २. स्यात् नास्ति ३. स्यात् अस्ति नास्ति ४. स्यात् अवक्तव्य ५. स्यात् अस्ति अवक्तव्य ६. स्यात नास्ति अवक्तव्य
७. स्यात् अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य अर्थ का कथन
२. नहीं है, ३. है, और नहीं है, ४. कहा नहीं जा सकता, ५. है, कहा नहीं जा सकता, ६. नहीं है, कहा नहीं जा सकता, ७. है, नहीं है, कहा नहीं जा सकता,
वस्तु के विषयभूत अस्तित्व आदि प्रत्येक पर्याय के धर्मों के सात प्रकार के ही होने से व्यस्त और समस्त, विधि-निषेध को कल्पना से सात ही प्रकार के सन्देह उत्पन्न होते हैं । अतः वस्तु के विषय में, सात ही प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होने के कारण उसके विषय में सात ही प्रकार के प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं और उनका उत्तर इस प्रकार के वाक्यों द्वारा दिया जाता है। भंगों का विकास
मूल भंग दो हैं-अस्ति और नास्ति। दोनों की युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य नाम का भंग बनता है। यह भी मूल भंग कहा जाता है। अतः मूल भंग तीन हैं-अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य । इन तीनों के असंयोगी भंग इस प्रकार हैं-अस्ति, नास्ति एवं अवक्तव्य । द्विसंयोगी भंग इस प्रकार
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