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७० | जैन न्याय- शास्त्र : एक परिशीलन
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लक्षण की परिभाषा
अनेक प्रकार के मिश्रित पदार्थों में से किसी एक पदार्थ को अगले एवं पिछले पदार्थों से पृथक् करने वाले को लक्षण कहा गया है । उसके दो भेद हैं- आत्मभूत और अनात्मभूत ।
१. आत्म-भूत लक्षण - जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहा गया है । जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता और जीव का लक्षण चैतन्य कहा जाता हैं ।
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२. अनात्मभूत लक्षण - जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो, उसको अनात्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे दण्डी पुरुष का लक्षण दण्ड । यहाँ दण्ड, पुरुष से अलग है । फिर भी वह दण्डी को अन्य पुरुषों से अलग करके उसकी पहचान करा ही देता है । लक्ष्य का ज्ञान, लक्षण से ही किया जा सकता है ।
लक्षणाभास
सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहा गया है । लक्षणाभास के तीन भेद हैं - अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव । जैसे कि कहा है
१. अव्याप्ति -- लक्ष्य के एकदेश में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं । जैसे पशु का लक्षण सींग कहना । समस्त पशुओं में सींग नहीं होते । जीव का लक्षण पञ्चेन्द्रियत्व को कहना । जीवत्व एकेन्द्रिय में भी होता है । २. अतिव्याप्ति - लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में, लक्षण के रहने को अतिव्याप्ति दोष कहते हैं । जैसे गाय का लक्षण सींग । लक्ष्य गाय में सींग है, लेकिन अलक्ष्य भैंस में भी सींग है ।
३. असम्भव - लक्ष्य मात्र में कहीं पर भी लक्षण के सम्भव न होने को असम्भव दोष कहते हैं । जैसे अग्नि का लक्षण शीतलता । वस्तु के स्व-पर चतुष्टय
जैन दर्शन, अनेकान्त दर्शन है । इसके अनुसार वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं । अपेक्षाभेद से परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का भी एक ही वस्तु में सामञ्जस्य होता है, समन्वय किया जाता है । जैसे अस्ति और नास्ति । जैसे घट पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा, अस्ति धर्म वाला है, और पर चतुष्टय की अपेक्षा, नास्ति धर्म वाला है । प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा है, और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नहीं है ।
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