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वस्तु का लक्षण | ६६
पुण्य एवं पाप - चारों तत्त्व जीव और अजीव के संयोग से बने हैं । संवर का अर्थ है - आस्रव से आने वाले कर्म-प्रवाह को रोकना, कर्मों का आत्मा के साथ संयोग नहीं होने देना । कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को एकदेश से हटाने वाले तत्त्व को निर्जरा कहते हैं । आत्मा पर लगे हुए समस्त कर्म वर्गणा के पुद्गलों को हटा देने वाले तत्त्व को मोक्ष कहते हैं । साधना की अपेक्षा ये नव तत्त्व कहे हैं ।
चार निक्षेप
निक्षेप के बिना शब्द का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता । निक्षेप की परिभाषा और व्याख्या की बिना समझे वस्तु का भी परिवोध नहीं होता । निक्षेप शब्द का अर्थ है - न्यास करना, रखना, शब्द को किसी अर्थ में रखना | आगम में कहा गया है कि पदार्थों के जितने निक्षेप हो सकें, उतने ही करने चाहिए। यदि विशेष निक्षेप करने की शक्ति न हो, तो चार निक्षेप अवश्य करने चाहिए । निक्षेप के चार भेद इस प्रकार होते हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१. नाम निक्षेप - लोक व्यवहार चलाने के लिए, किसी दूसरे गुण एवं क्रिया आदि निमित्त की अपेक्षा न रखकर, किसी पदार्थ की संज्ञा रख देना, नाम निक्षेप है । जैसे किसी का नाम महावीर रख देना । नाम निक्षेप गुण की अपेक्षा नहीं करता ।
२. स्थापना निक्षेप - प्रतिपाद्य वस्तु के सदृश अथवा विसदृश आकार वाली वस्तु में, प्रतिपाद्य वस्तु की स्थापना करना, स्थापना निक्षेप है । जैसे जम्बूद्वीप के चित्र को जम्बूद्वीप कहना । तीर्थंकर की मूर्ति को तोर्थंकर कहना । स्थापना के दो भेद हैं- तदाकार और अतदाकार |
३. द्रव्य निक्षेप - किसी पदार्थ की भूत एवं भविष्यकालीन पर्याय के नाम का वर्तमान काल में व्यवहार करना, द्रव्य निक्षेप है । जैसे राजा के मृतक शरीर में, "यह राजा है" इस प्रकार भूतकालीन राजा पर्याय का व्यवहार करना । भविष्य में राजा होने वाले युवराज को राजा कहना ।
शास्त्र का ज्ञाता, जब उस शास्त्र के उपयोग से शून्य होता है, तब उसका ज्ञान, द्रव्यज्ञान कहा जाता है । अनुपयोगो द्रव्यमिति वचनात् ।' अर्थात् उपयोग न होना द्रव्य है ।
४. भाव निक्षेप - पर्याय के अनुसार वस्तु में, शब्द का प्रयोग करना, भाव निक्ष ेप है । जैसे राज्य शासन करते हुए राजा को राजा कहना । शास्त्र के उपयोग वाले को शास्त्र का ज्ञाता कहना ।
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