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६८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन पुद्गल के छह भेद
पुरण-गलन धर्म वाला तथा रूपी द्रव्य को पुद्गल कहते हैं, उसके छह भेद हैं
१. सूक्ष्म-सूक्ष्म, परमाण पुद्गल ।
२. सक्ष्म, दो प्रदेश से लेकर, सक्ष्म रूप में परिणत अनन्त प्रदेशों का स्कन्ध ।
३. सक्ष्म-बादर, गन्ध के मुद्गल । ४. बादर-सूक्ष्म, वायुकाय का शरीर । ५. बादर, ओस आदि अप्काय का शरीर ।
६. बादर-बादर, अग्नि, वनस्पति, पृथ्वी तथा त्रसकाय के जीवों का शरीर।
दशवकालिक अध्ययन चतुर्थ भाष्य गाथा साठ की टीका में कहा गया है, कि सक्ष्म-सक्ष्म तथा सक्ष्म का इन्द्रियों से अनुभव नहीं हो सकता। इन दोनों में परमाणु या प्रदेशों का भेद है। सूक्ष्म-सूक्ष्म एक ही परमाणु होता है, वह एक ही आकाश प्रदेश को घेरता है। सूक्ष्म में परमाणु अधिक होते हैं, आकाश प्रदेश भी अनेक । सूक्ष्म बादर का केवल घ्राण से अनुभव किया जा सकता है, और किसी इन्द्रिय से नहीं। बादर सूक्ष्म का स्पर्शन से, बादर का नेत्र और स्पर्शन से, बादर-बादर का समस्त इन्द्रियों से अनुभव किया जा सकता है। पुद्गल के ये छह भेद, उसकी पर्याय हैं, उसकी अवस्था विशेष हैं, जो कभी नजर पड़ती हैं, और कभी नजर नहीं भी पड़ती हैं। तत्त्व की परिभाषा
नवतत्त्व में मुख्य तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । इसके अतिरिक्त सात तत्त्व दोनों के संयोग और वियोग से बने हैं। दो पदार्थों के मिलन को संयोग और दोनों के पृथक् होने को वियोग कहते हैं। सातों तत्त्व पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं हैं, उनमें कुछ संयोग से बने हैं, और कुछ वियोग से । आस्रव, बन्ध, पूण्य और पाप-ये चारों तत्त्व संयोग से बने हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीनों तत्त्व वियोग से बने हैं। जीव के आत्म-प्रदेशों को आवृत करने वाले कर्म, जिस क्रिया से आते हैं, उस तत्त्व को आस्रव कहते हैं । जहाँ आस्रव होता है, वहाँ बन्ध भी होता है, क्योंकि क्रिया से आने वाले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का राग-द्वेष की परिणति से बन्ध होता है । आस्रव एवं बन्ध-शुभ और अशुभ भावों से शुभाशुभ कर्मों का होता है। शुभ को पुण्य कहते हैं और अशुभ को पाप । अतः आस्रव, बन्ध,
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