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प्रमाण और नय
जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। मिथ्याज्ञान अप्रमाण कहा गया है । प्रमाण और नय के द्वारा वस्तु स्वरूप को समझना सम्यग्ज्ञान है । जो ज्ञान शब्दों में उतारा जा सके, जिसमें वस्तु को उद्देश्य और विधेय रूप में कहा जा सके, उसे नय कहते हैं। उद्देश्य और विधेय के विभाग के बिना ही जिसमें अविभक्त रूप से वस्तु का ज्ञान हो, उसे प्रमाण कहा जाता है। जो ज्ञान वस्तु के अनेक अंशों को जाने, वह प्रमाण और अपनी विवक्षा से किसी एक अंश को प्रमुख मानकर व्यवहार करना, नय है । नय और प्रमाण दोनों ज्ञान हैं, किन्तु वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाला नय है, और अनेक धर्मों वाली वस्तु का अनेक रूप से निश्चय करना प्रमाण है।
जिस प्रकार दीपक में नित्य धर्म भी रहता है, और अनित्य धर्म भी । यहाँ अनित्यत्व का निषेध न करके अपेक्षावशात् दीपक को नित्य कहना, नय है। प्रमाण की अपेक्षा नित्यत्व तथा अनित्यत्व दोनों धर्मों वाला होने से उसे नित्य एवं अनित्य कहा जाएगा। अतः प्रमाण और नय से वस्तु का यथार्थ परिबोध होता है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। वह किसी भी प्रकार के एकान्तवाद को स्वीकार नहीं करता । तत्व को यथार्थ रूप में समझने के लिए प्रमाण और नय, दोनों की नितान्त आवश्यकता है।
प्रमाण विचार जैन दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। ज्ञान के पांच भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल । इन पांचों ज्ञानों को
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