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५८ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
जाये कि कालान्तर में भी उसका कभी विस्मरण न हो, तो उसको धारणा कहा जाता है । श्रुतज्ञान के भेद
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शास्त्र को सुनने और पढ़ने से, इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान है । श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । जिन आगमों में गणधरों ने तीर्थंकर भगवान् के उपदेश को ग्रथित किया है, वह अंगप्रविष्ट होता है । जैसे कि द्वादशांग वाणी । द्वादशांगी के बाहर का शास्त्रज्ञान, अंग बाह्य कहा गया है । जैसे कि उपांग, मूल और छेद शास्त्र । दश प्रकीर्णकों का समावेश भी इसमें हो जाता है। श्रुतज्ञान के चतुर्दश भेद भी अन्यत्र कहे गए हैं । प्रकारान्तर से प्रमाण भेद
भगवती सूत्र, शतक पाँच, उद्ददेशक चार में तथा अनुयोगद्वार सूत्र में, प्रमाण के चार भेद हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । न्यायशास्त्र में भी ये ही चार प्रमाण स्वीकृत हैं । चतुर्थ भेद में नाम का अन्तर है । वहाँ आगम न कहकर शब्द प्रमाण कहा गया है । शेष तीन में अन्तर नहीं है ।
१. प्रत्यक्ष - अक्ष शब्द के दो अर्थ हैं- आत्मा और इन्द्रिय । इन्द्रियों की सहायता बिना जीव के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे अवधि, मनःपर्याय और केवल । इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला एवं इन्द्रियों की सहायता द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान, प्रत्यक्ष कहा जाता है । निश्चय में तो अवधि, मनःपर्याय और केवल ही प्रत्यक्ष हैं । व्यवहार में इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष कहा जाता है । यह लोक प्रत्यक्ष है ।
२. अनुमान - साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा गया है । लिंग अर्थात् हेतु के ग्रहण और सम्बन्ध अर्थात् व्याप्ति के स्मरण के पश्चात् जिस से पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहा गया है । यही है, साधन से साध्य का ज्ञान । जैसे पर्वत में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है । ३. उपमान - जिसके द्वारा सादृश्य से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे उपमान कहते हैं । जैसे कि रोज गाय के समान होता है । यह सादृश्य ज्ञान है ।
४. आगम - शास्त्र के द्वारा होने वाला ज्ञान, आगम अथवा शब्द प्रमाण कहा जाता है ।
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