________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वस्तु का लक्षण | ६५
प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं-एक बदलने वाला, दूसरा नहीं बदलने वाला । एक स्थिर एवं दूसरा अस्थिर । स्थिर अंश को ध्रुव कहते है, और अस्थिर अंश को उत्पाद तथा व्यय कहा गया है । ध्र व अंश को द्रव्य कहते हैं, और अध्र व अंश को पर्याय कहा जाता है। अतः जगत् की प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है, क्षणिक है, क्षणभंगुर है । वस्तु के नित्यत्व एवं अनित्यत्व को लेकर ही जैन दर्शन में सप्तभंगी का अवतरण किया जाता है। यदि वस्तु को एकान्त नित्य माना जाए, तो उसमें कोई कार्य नहीं हो सकता। यदि एकान्त अनित्य माना जाए तो उसमें पूर्वापर पर्याय का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । इन कारणों से एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य- दोनों पक्ष तर्क तथा युक्ति के विपरीत है। द्रव्य और तत्व
प्रमेय, ज्ञय, अभिधेय, वस्तु और तत्व सब पर्यायवाची हैं । जैन दर्शन में, मुख्य रूप में द्रव्य और तत्व शब्दों का प्रयोग किया जाता है । षड् द्रव्य और नव तत्व-जैन दर्शन के मुख्य विषय हैं। दर्शनशास्त्र में और तर्कशास्त्र में द्रव्यों की मीमांसा होती है, और अध्यात्मशास्त्र में तत्त्वों की विवेचना की जाती है। साधना की दृष्टि से भी तत्वों का अधिक महत्त्व माना जाता है । जैन विज्ञान की दृष्टि से जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों का अधिक महत्व समझा जाता है । पर, प्रमाण और ज्ञान के विषय, दोनों माने जाते हैं । षड द्रव्य
तत्त्वार्थ सूत्र में, वाचक उमास्वाति ने द्रव्य की व्याख्या इस प्रकार की है - 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम्'-गुण और पर्याय के आश्रय को द्रव्य कहते हैं । द्रव्य की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'द्रवति तान् तान् पर्यायान् गच्छति' इति द्रव्यम् । उसके छह भेद हैं
१. धर्म द्रव्य जीव-पुद्गल की गति सहायक २. अधर्म द्रव्य जीव-पुद्गल की स्थिति सहायक ३. आकाश द्रव्य जीव-पुद्गल को अवकाश देने वाला ४. काल द्रव्य द्रव्यों में वर्तना करने वाला ५. जीव द्रव्य जिसमें उपयोग हो ६. पुद्गल द्रव्य जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो
For Private and Personal Use Only