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वस्तु का लक्षण
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जैन दर्शन में, वस्तु का लक्षण इस प्रकार किया गया है - 'सामान्यविशेषात्मकं स्वतु । वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्म एक साथ रहते हैं । वस्तु को ज्ञ ेय भी कहते हैं। क्योंकि वह ज्ञान का विषय है । वस्तु को प्रमेय भी कहते हैं। क्योंकि वह प्रमा का विषय है । वस्तु को अभिधेय भी कहते हैं । क्योंकि वह अभिधा का विषय है । प्रमाण एवं नय से वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है । वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है- 'प्रमाण - नयैरधिगमः ।' प्रमाण और नयों से वस्तु का, तत्त्व का अधिगम अर्थात् ज्ञान होता है ।
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तत्त्वार्थ सूत्र वस्तु का लक्षण इस प्रकार किया गया है--' उत्पादव्यय - ध्रौव्य युक्तं सत् ।' जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- तीनों एक साथ रहते हों, उसे सत् अर्थात् वस्तु, द्रव्य तथा तत्व कहते हैं । वेदान्त में एकमात्र ब्रह्म को सत् कहा गया है, और एकान्त ध्रुव, कुटस्थ तथा नित्य माना गया है । बौद्ध दर्शन में वस्तु को क्षणिक एवं अनित्य माना गया है सांख्य दर्शन में पुरुष को कूटस्थ नित्य तथा प्रकृति को परिणामि नित्य कहा जाता है | न्याय दर्शन में, परमाणु, आत्मा, आकाश और काल आदि को नित्य यथा घट-पट आदि को सर्वथा अनित्य कहा गया है। जैन दर्शन से भिन्न, अन्य दर्शन 'वस्तु को या तो एकान्त नित्य मानते हैं, या फिर एकांत अनित्य स्वीकार करते हैं ।
जैन दर्शन की मान्यता है, कि वस्तु जड़ हो, या चेतन, वह न एकान्त नित्य है, और न एकान्त अनित्य । वस्तु सूक्ष्म एवं बादर हो सकती है, तथा वस्तु मूर्त एवं अमूर्त हो सकती है । लेकिन ये सब वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य होती हैं । एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य नहीं । क्योंकि
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