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५६ | जैन न्यायशास्त्र : एक परिशीलन
ज्ञान शब्द से कहा गया है। ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया गया है-प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण । प्रथम के दो मति श्रुत परोक्ष हैं, शेष तीन प्रत्यक्ष | जो ज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष है । जो ज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है । अन्य दर्शनों में, इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है । जैन दर्शन में, उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है । वह केवल व्यवहार में प्रत्यक्ष है, वस्तुतः तो वह परोक्ष ही है । अतः जैनदर्शन में, प्रमाण दो प्रकार का कहा गया हैप्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण । इन दो भेदों में, अन्य सबका समावेश हो जाता है ।
प्रमाण के भेद
प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह प्रत्यक्ष प्रमाण होता है । जैसे कि अवधि, मनःपर्याय और केवल । प्रत्यक्ष की यह व्याख्या निश्चय नय से है । व्यवहार नय से तो इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान हो, वह परोक्ष प्रमाण है । जैसे मति एवं श्रुत । परोक्ष प्रमाण की दूसरी व्याख्या यह भी है, कि जो ज्ञान अस्पष्ट हो, अविशद हो, उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं । जैसे कि स्मरण एवं प्रत्यभिज्ञान आदि । परोक्ष प्रमाण के पांच भेद होते हैं - स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ।
अवधिज्ञान
इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो ज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है, वह अवधिज्ञान है । उसके दो भेद हैं- भवप्रत्यय और क्षयोपशमप्रत्यय । जिस ज्ञान के होने में, भव ही कारण हो, जन्म ही निमित्त हो, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । जैसे कि नारक जीवों को और देवों को जन्म से ही अवधिज्ञान हो जाता है | जप, तप एवं ध्यान आदि की साधना से मनुष्य तथा तिर्यञ्चों को जो अवधिज्ञान होता है, वह क्षयोपशमप्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है । इस को गुणप्रत्यय तथा लब्धिप्रत्यय, अवधिज्ञान भी कहा जाता है ।
मनःपर्याय ज्ञान
इन्द्र और मन की सहायता के बिना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो ज्ञान, संज्ञी जीवों के मन में स्थित भावों को जानता
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