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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ | जैन न्यायशास्त्र : एक परिशीलन ज्ञान शब्द से कहा गया है। ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया गया है-प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण । प्रथम के दो मति श्रुत परोक्ष हैं, शेष तीन प्रत्यक्ष | जो ज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष है । जो ज्ञान, इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है । अन्य दर्शनों में, इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है । जैन दर्शन में, उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है । वह केवल व्यवहार में प्रत्यक्ष है, वस्तुतः तो वह परोक्ष ही है । अतः जैनदर्शन में, प्रमाण दो प्रकार का कहा गया हैप्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण । इन दो भेदों में, अन्य सबका समावेश हो जाता है । प्रमाण के भेद प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह प्रत्यक्ष प्रमाण होता है । जैसे कि अवधि, मनःपर्याय और केवल । प्रत्यक्ष की यह व्याख्या निश्चय नय से है । व्यवहार नय से तो इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान हो, वह परोक्ष प्रमाण है । जैसे मति एवं श्रुत । परोक्ष प्रमाण की दूसरी व्याख्या यह भी है, कि जो ज्ञान अस्पष्ट हो, अविशद हो, उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं । जैसे कि स्मरण एवं प्रत्यभिज्ञान आदि । परोक्ष प्रमाण के पांच भेद होते हैं - स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । अवधिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो ज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है, वह अवधिज्ञान है । उसके दो भेद हैं- भवप्रत्यय और क्षयोपशमप्रत्यय । जिस ज्ञान के होने में, भव ही कारण हो, जन्म ही निमित्त हो, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । जैसे कि नारक जीवों को और देवों को जन्म से ही अवधिज्ञान हो जाता है | जप, तप एवं ध्यान आदि की साधना से मनुष्य तथा तिर्यञ्चों को जो अवधिज्ञान होता है, वह क्षयोपशमप्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है । इस को गुणप्रत्यय तथा लब्धिप्रत्यय, अवधिज्ञान भी कहा जाता है । मनःपर्याय ज्ञान इन्द्र और मन की सहायता के बिना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो ज्ञान, संज्ञी जीवों के मन में स्थित भावों को जानता For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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