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प्रमाण और नय | ५७
है, वह मनःपर्याय ज्ञान होता है। उसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपूलमति । दूसरे के मन में सोचे हुए भावों को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान होता है । जैसे उस व्यक्ति विशेष ने घट लाने का विचार किया है। दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ के विषय में विशेष रूप से जानना, विपुलमति मनःपर्याय ज्ञान है । जैसे उस व्यक्ति विशेष ने जिस घट को लाने का विचार किया है, वह घट रक्त है, गोलाकार है और काशी मे बना है एवं शीतकाल में बनाया गया है। इस प्रकार घट की पर्यायों को जानना, उसकी विशेष अवस्थाओं का परिबोध करना। यह विपुलमति मनःपर्याय ज्ञान, ऋजुमति से सूक्ष्म होता है । केवलज्ञान
इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना त्रिकाल तथा त्रिलोक स्थित समस्त पदार्यों को यूगपत् हस्तामलकवत् जानना केवलज्ञान है। केवल के विषय रूपी एवं अरूपी समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्याय हैं । ज्ञानाववरण कर्म के सर्वथा क्षय से जो ज्ञान प्रकट होता है, वह केवलज्ञान है । इसको क्षायिक ज्ञान भी कहा जाता है । परोक्ष ज्ञान
परोक्ष ज्ञान के दो भेद हैं-मतिज्ञान एवं श्र तज्ञान । पाँच इन्द्रिय और मन के द्वारा योग्य देश में स्थित पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान कहा गया है । स्पर्शन से स्पर्श का ज्ञान, रसना से रस का ज्ञान, घ्राण से गन्ध का ज्ञान, नेत्र से रूप का ज्ञान और श्रोत्र से शब्द का ज्ञान, सव मतिज्ञान हैं। मतिज्ञान के भेद
___ मतिज्ञान के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इन्द्रिय और पदार्थ के योग्य स्थान में रहने पर, सामान्य प्रतिभासरूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्वप्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं । दूर से किसी वस्तु का ज्ञान होना । अवग्रह से ज्ञात पदार्थ के विषय में, उत्पन्न संशय को दूर करते हुए, विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं । जैसे दूरस्थ वस्तु मनुष्य है, अथवा स्थाणु । यह ज्ञान दोनों पक्षों में रहने वाले संशय को दूर कर एक ओर झुकता है। परन्तु इतना क्षोण होता है कि ज्ञाता को पूर्ण निश्चय नहीं होता। ईहा से ज्ञात पदार्थों में 'यह वही है, अन्य नहीं है।' इस निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहा गया है । जैसे यह मनुष्य ही है । अवाय से ज्ञात पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो
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