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२४ | जैन न्याय शास्त्र : एक परिशीलन
यह जगत् निःस्वभाव है, शून्य है । शून्य ही निरपेक्ष परम यथार्थ सत्य है । वह शुन्य ही निर्वाण एवं बुद्ध के रूप में है ।
शून्यवादी महायान के दर्शन में, बुद्ध, निर्वाण एव शून्य – ये सब उसी प्रकार पर्यायवाचक शब्द हैं, जिस प्रकार अद्वैतवाद वेदान्त के मत में, ब्रह्म, मोक्ष एवं ब्रह्मज्ञान आदि पर्यायवाचक शब्द हैं । वेदान्त का निरपेक्ष तत्व ब्रह्म एक स्थिर, नित्य द्रव्य के रूप में है । महायान अपने निरपेक्ष तत्व का उस प्रकार निरूपण नहीं करता । परन्तु निरपेक्ष तत्व को दोनों ही समानरूप से मानते हैं ।
जिस प्रकार वेदान्त में, ब्रह्म का आनन्दमय स्वरूप है, उसी प्रकार महायान में निरपेक्ष बुद्ध तत्व का 'संभोगकाय' स्वीकार किया गया है ।
सत्ता के प्रकार
वेदान्त दर्शन अद्वैत तत्व की स्थापना करने के लिए सत्ता का निरूपण पारमार्थिक और व्यावहारिक दो स्तरों पर करता है । शून्यवादी नागार्जुन ने भी सत्ता के दो प्रकार कहे हैं - संवृत्ति सत्य और परमार्थ सत्य । दृश्यमान जगत् की संवृत्ति सत्यता है, परन्तु परमार्थ सत्यता निरपेक्ष शून्य की है ।
महायान निरपेक्ष तत्वरूप परम सत्य निर्वाण की स्थापना करता है, और वह निर्वाण तथा बुद्ध एक ही तत्व हैं । परम सत्य शून्य का साक्षात्कार तर्क से नहीं हो सकता, वह तो अलौकिक ज्ञान से ही हो सकता है । इसी ज्ञान को प्रज्ञापारमिता कहा गया है । यही है, वह शून्यवाद, जिसकी कल्पना नागार्जुन ने की थी ।
योगाचार का विज्ञानवाद
माध्यमिक शून्यवाद के बाद में, बौद्ध विचारधारा में, योगाचार के विज्ञानवाद का स्थान माना गया है । शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन थे, और विज्ञानवाद के प्रवर्तक वसुबन्धु थे । शून्यवाद को माध्यमिक और योगाचार को विज्ञानवाद कहा जाता है । माध्यमिक ने बाह्य और आन्तर, दोनों प्रकार के धर्मों का निषेध किया था योगाचार ने कहा, कि स्वसंवेदन का निषेध नहीं किया जा सकता । ज्ञान यथार्थ सत्य है, उसको स्वीकार करना ही होगा । इसके बिना संसार की वस्तुओं का व्यावहारिक अस्तित्व भी नहीं रहेगा ।
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