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जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था | ४३
भिरूढ़ और एवभूत । नयों की संख्या और स्वरूप के सम्बन्ध में काफी मतभेद रहे हैं । लेकिन नयों की सप्त संख्या के विषय में किसी प्रकार के मतभेद नहीं रहे हैं । जैनदर्शन में सप्तनय और सप्तभंग प्रसिद्ध हैं । नयों का परस्पर सम्बन्ध
उत्तर नय का विषय, पूर्व नय की अपेक्षा कम होता जाता है । नैगम नय का विषय सबसे अधिक है, क्योंकि वह सामान्य और विशेष अथवा भेद और अभेद, दोनों को ग्रहण करता है । संग्रह नय का विषय नैगम नय से कम हो जाता है, क्योंकि वह केवल सामान्य को अथवा अभेद को ही ग्रहण करता है । व्यवहार का विषय संग्रह से कम है, क्योंकि वह पृथक्करण करता है । ऋजुसूत्र का व्यवहार से कम है, क्योंकि ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान पदार्थ तक ही सीमित रहता है । भूतकाल और अनागत काल उसका विषय नहीं होता है ? शब्द का विषय ऋजुसूत्र से भी कम है, क्योंकि वह काल, कारक, लिंग और संख्या आदि के भेद से अर्थभेद मानता है । समभिरूढ़ का विषय शब्द से कम है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है । एवंभूत का विषय समभिरूढ़ से कम है, क्योंकि वह अर्थ को भी तभी उस शब्द द्वारा वाच्य मानता है, जब अर्थ अपनी व्युत्पत्तिमूलक क्रिया में पूर्णतया संलग्न रहता है । अतः यह स्पष्ट है कि पूर्व - पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर- उत्तर न्य का विषय सूक्ष्म, सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतम होता जाता है । इसी आधार पर नयों में पूर्वोत्तर सम्बन्ध है । यहो पारस्परिक सम्बन्ध है |
सामान्य और विशेष
जैन दर्शन में, सामान्य और विशेष के आधार पर, नयों का द्रव्याfre और पर्यायाथिक में विभाजन किया गया है। पहले के तोन नय सामान्यग्राही हैं । वाद के चार नय विशेषग्राही हैं । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक होती है । उसमें अभेद के कारण सामान्य भी है, और भेद के कारण विशेष भी है । वस्तुगत ये दोनों धर्म, उसके अविभाज्य अंश अथवा अंग हैं । अतः वस्तु का एकान्त रूप में कथन नहीं किया जा सकता । क्योंकि अनेक धर्मों का समूह है -- वस्तु । नय वस्तु के एक-एक धर्म को ग्रहण करता है, और प्रमाण वस्तु को समग्र रूप में ग्रहण करता है । नय और प्रमाण में यही अन्तर है ।
अभेद और भेद
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु में अभेद और भेद को स्वीकार करता है ।
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